SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य हुई यह परंपरा है' - ऐसे रामलालजी महाराज के कथन के लिए अब अधिक क्या कहना ? आगम-शास्त्रसंशोधक बन जाना यह कोई बाएँ हाथ का खेल नहीं हैं। संक्षेप में, ऐसे तो अनेक प्रकरण ग्रंथ हैं। हमारा यह प्रयास मर्यादित सामग्री से प्राप्त बहुत कम संदर्भो से ही पूर्ण हुआ है। किंतु अन्य अनेक आगम संदर्भो का एवं प्रकरण संदर्भो का समालोकन और संकलन प्रस्तुत विचार के प्रति अभी भी शेष ही है । यद्यपि अधुना उसकी आवश्यकता भी नहीं है, क्योकिं पेश किए सबूत और संदर्भ इतना स्पष्ट और स्वच्छ प्रकाश, संमूर्छिमविराधना के विषय में फैलाते हैं, कि जिसमें संमूर्छिम विषयक अज्ञान रूपी अंधेरे को बोरिया बिस्तर समेट कर नौ दो ग्यारह होना ही रहा । यही तो प्रस्तुत प्रयाय का ध्येय है। . रामलालजी महाराज की परंपरा क्या थी? NRERNMEHERE रामलालजी महाराज के गुरुमहाराज आचार्य श्रीनानेशजी द्वारा 'जिणधम्मो' नामक ग्रंथमाला का सृजन किया गया है, जिसका साद्यंत अवलोकन स्वयं रामलालजी महाराज ने किया है। इस ग्रंथमाला के प्रथम भाग में पृ. ३६९ पर लिखे उनके ही शब्द देखें : (ग्रंथ की भाषा गुजराती होने से यहाँ उसका अनुवाद पेश किया है)। “मनुष्यादि के शरीर की जब अशुचि अलग होती है, तब अंतर्मुहूर्त जितने समय में उसमें असंख्यात संमूर्छिम मनुष्य उत्पन्न हो सकते हैं और मर सकते हैं।" सुस्पष्ट है कि रामलालजी महाराज की गुरुपरंपरा भी संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति शरीर के बाहर ही स्वीकृत करती है... ऐसी परंपरा को सहसा बदलने के पीछे क्या कोई खास प्रयोजन है? रामलालजी महाराज तटस्थता रखेंगे तो अवश्य ऐसे परंपराघाती पंथ से प्रत्यावृत्त होंगे... प्रभु करे, वैसा ही हो! १०६
SR No.022666
Book TitleSamurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijaysuri, Jaysundarsuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy