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________________ संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य श्रीदर्शनरत्नरत्नाकर ग्रंथ का उदाहरण ही पर्याप्त हो जाएगा ... श्रीसिद्धांतसागर गणिवर्य द्वारा विरचित दर्शनरत्नरत्नाकर ग्रंथ (तृतीय लहर-पाँचवा तरंग - पृ.३४८) के ये शब्द सबसे पहले अवश्य ध्यान में लें : “यामिन्यादौ भाजने लघुनीतिर्न स्थाप्या मुहूर्तोपरि, तथा बहिर्भूमौ गतैरुच्चारादि व्युत्सृष्टमिति वारत्रयं भणनीयं यतस्तत्राऽसंज्ञिनराः समुत्पद्यन्ते मुहूर्तोपरि । तथा मुहूर्तोपरिस्थितनिष्ठीवन-श्लेष्म-पुरीषक्लिन्नमलादि वलनादिना नाक्रमणीयम् । तथा निष्ठीवन-श्लेष्म-देहमल-वांत-पित्तादि भस्म-रजःप्रभृतिना एकीकार्यं यथा तत्रासंज्ञिनरा न समुत्पद्यंते, कीटिकामक्षिकादिजंतवश्च न लगंति । तथा लघुनीतिक्लिन्नस्थाने खाले च लघुनीतिकरण-स्नान-पादधावन-जलत्यजनादि वर्जनीयम्।" यह संदर्भ अत्यंत स्पष्टतया बताता है कि : १. रात्रि के समय भाजन में एक मुहूर्त से अधिक समय तक लघुनीति स्थापित न रखें । (पृ.४६ की चर्चा के साथ अनुसंधान करें) २. बाहर दीर्घशंका के पश्चात् संभवित संमूर्छिम मनुष्य की विराधना की अनुमोदना से बचने हेतु, वोसिरे ..... वोसिरे बोलना। ३. एक मुहूर्त से अधिक समय तक पड़े हुए थूक, श्लेष्म, उच्चारादि के ऊपर पैर न आए उसकी सावधानी बरतनी । (पृ.६९ की चर्चा के साथ अनुसंधान करें) ४. थूक, कफ, शरीर के मैल वगैरह को व्यवस्थित भस्मादि के साथ संमिश्रित करें, संमूर्छिम मनुष्य की विराधना से बचने के लिए ही तो ! (पृ.७९ की चर्चा के साथ अनुसंधान करें) अत्यंत स्पष्टतया और अतीव साहजिकता से उल्लिखित, आगमपरंपरानिष्ठ तटस्थ विद्वान के हदय में प्रकाश फैलाने वाला यह पाठ १५१६वीं सदी में हुए निगमगच्छीय आचार्य इन्द्रनंदिसूरि म. के शिष्य श्रीसिद्धांतसागर गणि द्वारा लिखित है । 'अमुक दशकों के पहले शुरू १०५
SR No.022666
Book TitleSamurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijaysuri, Jaysundarsuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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