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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य क्योंकि शरीर में से बाहर निकलने के बाद तुरंत ही संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति नहीं मानी गई है। (देखिए पृ.-१२) वस्त्रादि के बांधने से रक्त उसी भाग में शक्यतः स्थिर रहता है तथा क्षार (=भस्म) से और देह की गरमी से संमूर्छिम मनुष्य उसमें उत्पन्न न हो - ऐसी यतना वहाँ बताई है। तदुपरांत पसीना-मैल वगैरह से युक्त वस्त्र जब तक पहने हुए हो अर्थात् देह के संसर्ग में हो तब तक उसमें भी जीवोत्पत्ति मानने की परंपरा नहीं है। शरीर की गरमी उसकी उत्पत्ति में प्रतिबंधक बनी रहती
है।
उष्णादि योनि वाले तर्क की समालोचना
यदि यहाँ यूं कहना चाहते हो कि -
“पन्नवणा में संमूर्छिम मनुष्य की त्रिविध योनि बताई है - शीत, उष्ण और मिश्र । अर्थात् उष्णयोनि वाले भी संमूर्छिम मनुष्य होने से देह की उष्णता से उसकी उत्पत्ति का अवरोध मानना योग्य नहीं।"
तो इसके जवाब में हमें मज़बूरन कहना पड़ेगा की आगमिक तथ्य से आप अब तक परिचित नहीं हुए हो, क्योंकि उष्णयोनि वाले होने मात्र से कोई भी जीव उष्णता से अप्रतिरोध्य नहीं बन जाते । उष्णयोनि वाला होना बह अलग बात है और उष्णता से अप्रतिरोध्य होना वह अलग बात है। तेजस्काय उष्णयोनिक है। तेजस्काय की उष्णयोनि बताई है।
"तेउक्काइयाणं णो सीता, उसिणा, णो सीउसिणा" (पन्नवणासूत्र, पद-३, सूत्र-१५०)। यहाँ तेजस्काय को सिर्फ उष्णयोनि ही बताई
है।
तथापि अन्य अग्नि वगैरह की उष्णता = गरमी से उसका प्रतिरोध, उसकी नाश्यता भी शास्त्रसिद्ध ही है। इसीलिए तो एक तेउकाय के लिए अन्य तेउकाय स्वकायशस्त्र होने की बात शास्त्रों में बताई है।