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________________ संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य विधान का पालन न करने में संमूर्छिम मनुष्य की विराधना होती है' - ऐसा उल्लेख नहीं किया है। उन्होंने वहाँ प्रवचनहीलना वगैरह हेतु बताए हैं। परंतु उसका मतलब यह नहीं है कि उन्हें इतने ही कारण बताने अभिप्रेत हैं। मुख्यतया वे दोष अनाचमन को उद्देश्य कर बताए हैं। निशीथभाष्य की गाथा १८७८ का व्यवस्थित अभ्यास करने वाले समझ सकते हैं कि अनाचमन को उद्देश्य कर जो दोष दर्शाए हैं वे दोष दूरआसन्न आचमन करने में भी समाविष्ट कर दिए गए हैं। अतः संमूर्छिम मनुष्यों की हिंसा वहाँ निर्दिष्ट नहीं हुई। पहले (पृ. ८९) हम स्पष्ट कर चुके तदनुसार निशीथचूर्णिकार को उच्चारादि शीघ्रतया सूख जाए वही इष्ट है। अतः शास्त्रकारों के सिर्फ शब्दों को पकड़ कर आक्षेप करना बिलकुल उचित नहीं है। हम देख सकते हैं कि शास्त्रकार अत्यंत सहजता से, बखूबी से संमूर्छिम मनुष्य विषयक शास्त्रमान्य प्राचीन परंपरा के प्रति श्रद्धा को दृढमूल करती हुई यतनाएँ दर्शाते ही हैं। इस तरह अद्यावधि देखी गई ढेर सारी बाबतों से शास्त्रकार भगवंतों ने संमूर्छिम मनुष्यों की विराधना से बचने हेतु अनेक यतनाएँ बताई हैं - ऐसा सिद्ध होने से 'संमूर्छिम की विराधना से बचने हेतु शास्त्रकारों ने कोई यतना नहीं बताई' - ऐसा कहना रामलालजी महाराज के लिए अत्यंत अनुचित गिना जाएगा। क्षारादि यतना का हार्द B-7 क्रमांक विचारबिंदु में श्रीरामलालजी महाराज यूँ बताते हैं कि - "घाव में से बहते रक्त के ऊपर क्षार डालने का विधान है तथा ऋतुकाल में आर्तव के दिनों में वस्त्रादि बांधने की बात है, इससे संमूर्छिम मनुष्य की विराधना का न होना सिद्ध होता है।" परंतु यह बात तो संमूर्छिम मनुष्य की विराधना से बचने के विषय में चली आ रही प्राचीन प्रणालिका और आगमिक तथ्य को पुष्ट करने वाली ही है,
SR No.022666
Book TitleSamurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijaysuri, Jaysundarsuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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