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________________ त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी 'तिन्नि वा' इस प्रकार के पद देखने को मिलते हैं, उन पदों के (शास्त्रपाठों के) आसपास के संदर्भ बिना सोचे-समझे उठाकर अपनी मान्यता के पक्षमें रख देते हैं किन्तु इस प्रकार सफल नहीं हो सकते। ____ अंततः फलितार्थ यह है कि, पू.उपाध्यायजी महाराजा एवं पू.आ.भ.श्री शांतिसूरिजी महाराजा समर्थ शास्त्रकार परमर्षि हैं। उन्होंने चतुर्थ स्तुति को मान्य किया है। स्वरचित ग्रंथोमें इसका उल्लेख भी किया है। विरोधी पक्ष को निरुतर करने के लिए आगम वचन से तथा युक्तिपूर्वक चतुर्थस्तुति को सिद्ध भी किया है इससे पाठकों को स्वयं सोचना है कि, शास्त्रकार परमर्षि सच्चे हैं या 'सत्य की खोज' पुस्तक के लेखक सच्चे हैं? (प्रतिमाशतक ग्रंथ में गाथा-२६ की टीकामें कहा गया है कि,) न च देवगृहेऽपि स्तुतित्रयकर्षणात्परतोऽवस्थानमनुज्ञातं साधूनामिति विधिवन्दनाद्यर्थधर्मस्थाने नोक्तदोषः।। _ (उपरोक्त पाठ का भावार्थ देखने से पहले ग्रंथकारश्रीने किसकी चर्चा में उपरोक्त विधान किया है, यह देख लें । संवास अनुमोदना की चर्चा चलती है। हिंसा के स्थान पर रहने से संवास अनुमोदना लागू होती है, और हिंसा के स्थल से दूर रहने से संवास अनुमोदना नहीं लगती। (यह चर्चा साधु-भगवंतो के लिए है यह ध्यान रहे।) यहां ग्रंथ में अनायतन का अर्थ हिंसा का आयतन किया गया है। अनायतन में रहने से अनुमोदना लगती है। साधु सर्वथा हिंसा से त्यागी होने के कारण अनायतन सेवी भी नहीं। उससे दूर हैं। इसलिए साधुओं को संवास अनुमोदना नहीं लगती। ___ ऐसी प्ररुपणा पू.उपाध्याय श्रीयशोविजयजी महाराजाने की है। तब प्रतिमालोपक (स्थानकवासी पक्ष)ने दलील की है कि, जिनालय में श्रावक पुष्पादि से पूजा करते हैं और इसलिए जिनालय पुष्पादि का आयतन ही अनायतन हिंसा का स्थान है और साधु जिनालय में जाते हैं । इसलिए वे
SR No.022665
Book TitleTristutik Mat Samiksha Prashnottari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherNareshbhai Navsariwale
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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