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त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी
बतावतां १४४४ ग्रंथना रचयिता पू.आ.भ.श्री हरिभद्रसूरिजीए योगद्रष्टि समुच्चय ग्रंथमां कर्तुं छे के,
आगमेनानुमानेन योगाभ्यासरसेन च ।
त्रिधा प्रकल्पयन् प्रज्ञां लभते तत्त्वमुत्तमम् ॥१०१॥ भावार्थ : १. आगमथी, २. अनुमान (युक्ति)थी अने ३. योगाभ्यासना रसथी ऐम त्रण प्रकारे प्रज्ञाने प्रयोजतां पुरुष उत्तम तत्त्वने पामे छे.
___ आ प्रमाणे श्रीठाणांगसूत्रना कथनानुसार परंपरा पण ज्ञानप्राप्तिनुं कारण छे. विधि-निषेधने जणावनार छे. अहीं ज्ञान प्राप्तिना कारण तरीके परंपरा बतावी छे ते, गमे ते परंपरानी वात नथी. परंतु अशठ, भवभीरु, संविग्न, गीतार्थ सुविहित महापुरुषोथी चाली आवती शास्त्रसापेक्ष सुविहित परंपराने ग्रहण करवानी छे.
आम सुविहित परंपरा पण ज्ञानप्राप्ति-ज्ञानवृद्धि→ कारण छे.
असत्क्रियाओ (पापक्रियाओ) अज्ञानना पाया उपर उभी छे. अज्ञानना योगे ज मजेथी असत्क्रियाओ चाले छे. रसपूर्वक करेली असत्क्रियाओथी असत्संस्कारो पडे छे. निमित्त मळतां ते असत्संस्कारोनो उदय थाय छे. तेना योगे पापनी इच्छाओ थाय छे. इच्छापूर्ति माटे पुनः असत्क्रियाओ थाय छे. तेनाथी पुनः असत्संस्कारो, तेनो उदय, उदयना योगे इच्छाओ अने तेने पूरी करवा असत्प्रवृत्तिओ चाल्या ज करे छे. अनादिकाळथी आपणा आत्मामां आ विषचक्र चाली रह्यं छे.
आ चाली रहेली विषमय घटमाळामां महत्तम फाळो अज्ञानना पाया उपर उभी रहेली असत्क्रियाओनो छे. ज्ञान अज्ञाननो नाश करी अज्ञानना पाया उपर चालती असत्क्रियाओने खतम करे छे अने जीवनमां धर्मक्रियाओनो प्रारंभ थाय छे.
आथी ज परमात्माओ ज्ञान अने क्रिया ऐम उभयरुपे मोक्षमार्ग बताव्यो छे. संप्राप्त ज्ञानथी प्राप्तव्य-अप्राप्तव्य- भान जीवंत रहेशे. तेना योगे कर्त्तव्य