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तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य
गया है, परन्तु युवराज हरिवाहन का कुछ पता नहीं चला। हरिवाहन के साथ किसी अनिष्ट की आशंका से समरकेतु के हृदय पर वज्रपात हो गया और उसने आत्महत्या का निश्चय कर लिया। उसी समय हर्ष नामक द्वारपाल ने आकर सूचना दी कि सेनापति कमलगुप्त का परितोष नामक पत्रवाहक कुमार हरिवाहन की कुशलता का समाचार लाया है। समरकेतु के पूछने पर परितोष ने बताया कि कुमार हरिवाहन की विरह वेदना से सन्तप्त सेनापति कमलगुप्त ने अचानक ही अपने सामने रखे इस पत्र को देखा। इस पत्र के वाहक का पता न चलने पर उन्होंने मन्त्रियों से मन्त्रणा करके इस पत्र का उत्तर लिखा । तदन्तर सभी ने हाथ जोड़कर विनय पूर्वक कहा 'जो भी देवता, दानव या विद्याधर इस पत्र को यहाँ लाया है, वह इस पत्रोत्तर को हरिवाहन तक पहुँचाने की कृपा करे। ऐसा कहने पर एक शुक उस पत्रोत्तर को चोंच में दबाकर तीव्रता से अन्तरिक्ष में उड़ गया। इसके पश्चात् सेनापति ने मुझे बुलाकर आपको इस पत्र को देने के लिए यहाँ भेज दिया।
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हरिवाहन की कुशलता सुनकर समरकेतु बहुत प्रसन्न हुआ और हरिवाहन के अन्वेषणार्थ बिना किसी को बताए रात्रि में उसी ओर चल पड़ा, जिस ओर वह उन्मत्त गज हरिवाहन को लेकर चला गया था। पर्वतों, नगरों आदि में ढूंढते हुए उसे छ: माह बीत गए, पर हरिवाहन का कुछ पता नहीं चला। एक दिन अष्टापद पर्वत के पश्चिम में स्थित वैताढ्य पर्वत के समीप एकशृंग नामक पर्वत के उर्ध्व भाग में जाते हुए समरकेतु ने अत्यन्त विशाल और रमणीय अदृष्टपार नामक दिव्य सरोवर को देखा। उस दिव्य सरोवर को देखकर और प्रसन्न होकर उसने उसमें स्नान किया, जिससे उसके मार्ग का श्रम दूर हो गया। कुछ देर सरोवर के तट पर रुककर वह माधवी लतामण्डप में जाकर सो गया। स्वप्न में उसने पारिजात वृक्ष के दर्शन किए, जिससे उसे मित्र हरिवाहन से शीघ्र संगम का निश्चय हुआ। अभी वह कुछ ही सोच ही रहा था कि उसने वन को कम्पायमान करने वाली अश्वसमूह के हिनहिनाने की आवाज सुनी। उसने बहुत इधर-उधर देखा, पर कोई भी नजर नहीं आया। तत्पश्चात् वह सोच-विचार कर हरिवाहन की खोज में उत्तर की दिशा की ओर चला पड़ा। चलते-चलते वह एक अत्यन्त रमणीय उद्यान में पहुँचा। उस उद्यान में उसने कल्पतरु वन के मध्य भाग में सुदर्शन नामक दिव्य आयतन को देखा। उस आयतन में प्रवेश करके उसने पारिजात पुष्पमालाओं से अभ्यर्चित, तीनों लोकों के गुरु आदि जिनेन्द्र भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा के