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शुभाशंसा
कवि अपनी प्रतिभा से हर वर्ण्य विषय में प्राण फूंक देता है, चाहे वह कैसा भी हो
रम्यं जुगुप्सितमुदारमथापि नीचमुग्रं प्रसादि गहनं विकृतं च वस्तु। यद्वाप्यवस्तु कविभावकभाव्यमानं तन्नास्ति यन्न रसभावमुपैति लोके॥
यह उक्ति तिलकमञ्जरी पर पूर्णतया चरितार्थ होती है। तिलकमञ्जरी गद्यकाव्य की एक प्रौढ़ कृति है। पद्यकाव्य लिखने की तुलना में गद्य लेखन को समीक्षकों ने जटिल बताया है
"गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति" धनपाल की कृति तिलकमञ्जरी में उनकी भावयित्री और कारयित्री प्रतिभा का सुन्दर समन्वय दृष्टिगोचर होता है। रस परिपाक की दृष्टि से कथावस्तु का ग्रहण करने में, उसका संशोधन करने में, विविध पात्रों के चरित्र चित्रण में और विविध अलंकारों के प्रयोग में यह कवि कुशल है।
डॉ. विजय गर्ग को मैं बहुत वर्षों से निकट से जानता हूँ। इनमें प्रतिभा के साथ-साथ अध्यवसाय का मणि-काञ्चन संयोग है। मुझे यह जानकर अत्यन्त हर्ष का अनुभव हो रहा है कि मेरे प्रिय शिष्य डॉ. विजय गर्ग का यह शोध प्रबन्ध प्रकाशित हो रहा है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि इस ग्रन्थ से काव्य-शास्त्र के विद्यार्थियों के साथ-साथ सामान्य साहित्य-प्रेमी भी लाभान्वित होंगे।
मैं इनके उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूँ।
दे
प्रो. देवेन्द्र मिश्र एम.ए. (संस्कृत), पीएच.डी., ज्योतिर्विद्
पूर्व अध्यक्ष, संस्कृत विभाग
दिल्ली विश्वविद्यालय