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________________ 35 तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य पर बैठकर, मीठे वचनों से कहा कि हे मुनिवृन्द में वन्दनीय भगवन् ! आपने यहाँ आकर इस भवन के महत्त्व को बढ़ा दिया है। आपके पवित्र व शीतल दृष्टिपात से मेरे नगरवासियों व परिजनों के सभी पाप नष्ट हो गए हैं। आपके चरणों में बैठने से मुझे सभी तीर्थों के स्नान का फल मिल गया है। अतः हम सभी आपके दर्शनों से धन्य हो गए हैं। अब मैं और अधिक कल्याण की प्राप्ति के लिए कुछ विशेष करना चाहता हूँ। यह पृथ्वी, यह राज्य, यह धन, यह शरीर, यह राजभवन अपने अथवा किसी अन्य के प्रयोजन की सिद्धि के लिए जो भी उपयोगी हो, उसे स्वीकार करें। विनय से परिपूर्ण इन वचनों को सुनकर गद्गद होते हुए मुनि ने कहा हे महानुभाव ! आपने अपने गुणों के अनुरूप ही कहा। परन्तु धन-लुब्ध जन ही सुख के लिए धन की कामना करते हैं, हम मुनिजनों को धन से क्या प्रयोजन? हम तो निर्जन वन में वास करते हुए धर्म का पालन करते हैं, क्योंकि धर्म मुक्ति का कारण है। अतः मुनि तुच्छ सांसारिक सुखों के लिए काम, क्रोधादि अनर्थों के जनक राज्यादि को कैसे ग्रहण करेंगे? परार्थ सम्पादन भी धर्मोपदेश के द्वारा ही हो जाता हैं अतः इनके विषय में आग्रह व्यर्थ है। अब आप मुझे यह बताएँ कि सौन्दर्य में देवलोक को तिरस्कृत करने वाली यह नगरी कौन सी है ?आप कौन हैं और आपके निकट बैठी हुई व दु:खी दिख रही यह देवी कौन है? विद्याधर मुनि के ऐसा पूछने पर सम्राट ने कहा-भगवन् ! आप लोगों का स्वभाव परोपकारोन्मुखी होता है। आप जैसे महात्माओं से कुछ भी गोपनीय नहीं होता। हे भगवन्! इस नगरी का नाम अयोध्या हैं और मैं इक्ष्वाकु वशोत्पन्न मेघवाहन नाम का राजा हूँ। यह पार्श्ववर्तिनी मदिरावती मेरी प्रधान महिषी है। हमारे सन्ताप का एकमात्र कारण सन्तानहीनता है। मदिरावती के दु:ख के कारण को भी बताता हूँ। रात्री के अन्तिम प्रहर में मैंने स्तुतिपाठक के द्वारा प्रभात काल में गाए जाने वाले मांगलिक गीत को सुना - "सन्तानहीनता रूप विपत्तियों के समान रात्रि बीत गई है, आपके कुल के समान सूर्य का मण्डल जगत् के प्रकाश के लिए उदित हो रहा है। शान्तचित्त होकर इष्ट देव की आराधना करो।" इस गीत को सुनकर व हर्षित होकर मैंने सोचा कि अनायास ही इस स्तुतिपाठक ने मुझे सन्तान प्राप्ति का उपाय सुझा दिया है। अतः अब मैं वन में जाकर देवता की आराधना करूँगा। अपना यह निश्चय मैंने अपनी प्रेमपात्रा रानी मदिरावती को बताया तथा 1. विपदिव विरता विभावरी नृप निरपायमुपास्स्व देवता:। उदयति भवनोदयाय ते कुलमिव मण्डलमुष्णदीधितेः ।। ति. म., पृ. 28
SR No.022664
Book TitleTilakmanjari Me Kavya Saundarya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Garg
PublisherBharatiya Vidya Prakashan2017
Publication Year2004
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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