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तिलकमञ्जरी का कथासार तिलकमञ्जरी का कथासार उत्तर कौशल में अपने सौन्दर्य से सभी लोकों को तिरस्कृत करने वाली, स्वर्ग से भी उत्कृष्ट, शत्रुओं के द्वारा न जीती जा सकने वाली अयोध्या नाम की नगरी है। यह नगरी देदीप्यमान चरित्रवाले ब्राह्मणादि वर्गों से सुशोभित थी। उस नगरी में मेघवाहन नामक चक्रवर्ती राजा था। जिसने ब्राह्मणादि वर्गों को यथाविध स्थापित कर दिया था। नीति निपुण होने के कारण उसने अनायास ही सभी राजाओं को अपने अधीन कर लिया था। इस राजा मेघवाहन का बाल्यावस्था में राज्याभिषेक हो गया था। उसने अपने पराक्रम व बाहुबल से सातों समुद्र पर्यन्त भूमि को जीतकर शत्रु रहित कर दिया था। वह नागरिकों की प्रसन्नता के लिए अपनी उपस्थिति से वसन्तादि विशेष उत्सवों की शोभा बढ़ता था। नगर वासियों के सुख-दुःख को जानने के लिए वेश बदलकर नगरी में भ्रमण किया करता था। इस प्रकार सब और शान्ति स्थापित करने के कारण वह यथार्थ प्रजापति था। इस चक्रवर्ती राजा मेघवाहन की द्वितीय शशिकला के समान, दयादाक्षिण्यादि गुणों की निधिभूत (खजाना), सौभाग्य की सम्पत्ति के समान मदिरावती नाम की रानी थी। मेघवाहन अपनी रानी में अत्यधिक प्रीति रखते हुए यौवनोचित सुखों का अनुभव करते थे।
इस प्रकार राजा मेघवाहन अपनी रानी के साथ रमण करते हुए हर प्रकार से जीवनानन्द का अनुभव करते रहे, परन्तु बहुत समय बीत जाने पर भी उन्हें सन्तान सुख की प्राप्ति नहीं हुई। यही चिन्ता रूपी ज्वर उनके हृदय को अग्नि के समान सन्तप्त करता था। इसी कारण सूर्य के समान तप्त सम्राट मेघवाहन का मन राजलक्ष्मी में भी नहीं रमता था।
एक बार सम्राट मेघवाहन भद्रशाल नामक राजभवन के ऊर्ध्व भाग में बैठकर अपनी रानी मदिरावती से वार्तालाप कर रहे थे कि सहसा ही उन्होंने अपने तेज से सम्पूर्ण आकाश मार्ग को प्रकशित करते हुए, एक विद्याधर मुनि को आकाश मार्ग से आते हुए देखा। विद्याधर मुनि को देखकर व आश्चर्य चकित होकर तथा उस दिव्य मुनि के प्रति अत्यधिक आदरभाव से युक्त होकर वे दोनों खड़े हो गए। उन दोनों के श्राद्धाधिक्य को देखकर विद्याधर मुनि भी उनके भवन पर उतर आए। आनन्दपूरित चक्षुओं से उन दोनों ने मुनि की विधिवत् पूजा की तथा उन्हें स्वर्णासन पर बिठाया। राजा ने मुनि का यथोचित सत्कार करके व पृथ्वी