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काव्य सौन्दर्य
जिसकी सत्ता से काव्य में काव्यत्व रहता है। इस प्रश्न की गवेषणा में ही काव्यशास्त्र में अनेक सम्प्रदायों का उदय हुआ। प्रारम्भिक आचार्य अलङ्कारों को ही काव्य का सर्वस्व मानते थे, अतः उनके ग्रन्थों का नाम भी काव्याङ्कार होता था। परन्तु परवर्ती आचार्यों को यह मत स्वीकार नहीं हुआ और उन्होंने रस, रीति, वक्रोक्ति, औचित्य और ध्वनि को काव्यात्मा मानकर विवेचनाएं की, जिससे रस सम्प्रदाय, रीति सम्प्रदाय, वक्रोक्ति सम्प्रदाय, औचित्य सम्प्रदाय और ध्वनि सम्प्रदाय का विकास हुआ।
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प्रस्तुत ग्रन्थ में काव्य-सौन्दर्य विषयक तत्त्वों - रस, औचित्य और वक्रोक्ति के आधार पर तिलकमञ्जरी के विविध स्थलों के वर्णनों में उत्पन्न चमत्कार व रमणीयता की विवेचना की गई है। गद्य काव्य में पात्रों का भी महत्वपूर्ण स्थान होता है। कवि पात्रों के माध्यम से ही अपनी कल्पना को आकार प्रदान करता है। वह पात्रों की अन्तः प्रकृति को निर्धारित कर उससे अभिलषित आचरण करवाता है, जिससे उसके पात्र जीवंत होकर काव्य सौन्दर्य में वृद्धि करते हैं। अतः सौन्दर्य उद्घाटन के क्रम में सर्वप्रथम पात्रों के चारित्रिक सौन्दर्य को प्रकट किया गया है।