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________________ उपसंहार 235 कि उसका दुःख प्रकृति में भी प्रकट होने लगता है। __ धनपाल ने यत्र तत्र आश्चर्यजनक पदार्थों यथा-शुक का बोलना, अंगुलियक के प्रभाव से समरकेतु की सेना को निद्रा आ जाना, हाथी का हरिवाहन को लेकर आकाश में उड़ जाना, निशीथ नामक दिव्य वस्त्र का चमत्कार, विद्याधरों का उड़ना आदि का वर्णन कर सहृदय को अद्भुत रस सागर में निमग्न होने के पर्याप्त अवसर प्रदान किये हैं। धनपाल ने स्वयं भी इस कथा को अद्भुतरसस्फुटा कहा है। तिलकमञ्जरी में अन्य अङ्ग रसों करुण, वीर, रौद्र, भयानक व शान्त रसों ने भी यथावसर उपस्थित होकर सर्वत्र अङ्गी रस शृङ्गार का ही उत्कर्ष किया है। इस प्रकार धनपाल रससिद्ध कवि है। षष्ठ अध्याय में तिलकमञ्जरी की औचित्य की दृष्टि से समीक्षा की गई है। उचित का भाव औचित्य कहलाता है। सभी काव्याचार्यों ने प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से औचित्य की महत्ता को स्वीकार किया है। उचित आश्रय के सम्पर्क से दोष भी गुणरूपता को धारण कर लेता है। आनन्दवर्धन ने रस विवेचन में औचित्य के पालन को अत्यावश्यक बताया है उनके अनुसार रसभङ्ग का एकमात्र कारण अनौचित्य ही है। आचार्य क्षेमेन्द्र ने काव्य में औचित्य की सत्ता को पहचान कर उसे काव्य के प्राण तत्त्व के रूप में प्रतिष्ठित किया है। औचित्य के 27 भेद हैं। धनपाल ने तिलकमञ्जरी में सर्वत्र औचित्य का निर्वाह किया है जिससे तिलकमञ्जरी के कथारस की चारुचर्वणा हुई है। सप्तम अध्याय में वक्रोक्ति को निकष बनाकर तिलकमञ्जरी की परीक्षा की गई है। वक्रोक्ति का अर्थ है- वक्रतापूर्ण उक्ति अर्थात् रमणीयता से युक्त उक्ति। सामान्य उक्ति और कवि की उक्ति में मुख्य भेद यही है कि सामान्य उक्ति में किसी चमत्कार की निष्पत्ति नहीं होती, परन्तु कवि अपनी प्रतिभा से सामान्य उक्ति में भी वैचित्र्य का समावेश कर उसे रमणीय बना देता है। आचार्य कुन्तक वक्रोक्ति के उन्नायक आचार्य हैं। इन्होंने वक्रोक्ति का सूक्ष्मता से मनन कर उसके छः मुख्य भेद किये है। आचार्य कुन्तक ने काव्य की लघुतम इकाई वर्ण से लेकर उसके महत्तम रूप प्रबन्ध को वक्रोक्ति में समाहित कर लिया है। धनपाल रससिद्ध कवि है। तिलकमञ्जरी में आचार्य कुन्तक सम्मत वक्रोक्ति का चमत्कार सर्वत्र परिलक्षित होता है। धनपाल के वर्णनों में वक्रोक्ति की सहज, सुगम्य व रमणीय वक्रता के दर्शन होते हैं।
SR No.022664
Book TitleTilakmanjari Me Kavya Saundarya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Garg
PublisherBharatiya Vidya Prakashan2017
Publication Year2004
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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