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________________ तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य 207 रदोलाभिरम्भः पानानन्दनिद्रायमाणश्वापदसंकुलाभिरम्बुगर्भनिर्भरनिभृताभ्रमण्डलीविभ्रमाभिर्वनराजिभिरन्वकारितया पाल्या परितः परिक्षिप्तम्... अदृष्टपाराभिधानं सरो दृष्टवान्। पृ. 202-203 अदृष्टपार सरोवर अत्यधिक विस्तृत प्रान्तभूमि वाला है। हवा के झोंको से इसमें निरन्तर तरङ्गे उठती रहती हैं, बालकमल लहलहाते रहते हैं, स्थूल जलकणों के निरन्तर फुहारों से दिशाओं का सिञ्चन होता रहता है। अदृष्टपार सरोवर चारों ओर से घने वृक्षों वाले वनों से घिरा हुआ है। यह नाचते हुए मोरों के केकारव से मुखरित है। वृक्षो के उर्ध्व भाग पर थके हुए सारस पक्षी बैठे हुए हैं। हस्तीशावकों ने अपनी सूण्डों से अनेक वृक्षों की शाखाओं को तोड़ दिया है, चंचल वानर लतारूपी झूलों को हिला रहे हैं। यह सरोवर जलपान से तृप्त होकर निंद्रा का अनुभव करने वाले, हिंसक पशुओं से व्याप्त है। यहाँ अदृष्टपारसरोवर का अत्यन्त रमणीय वर्णन किया गया है। ऐसे प्राकृतिक सौन्दर्य और मनोहारी वातावरण में पशु और पक्षी भी आनन्दित व मस्त हैं, सामान्य जन का मनमयूर तो निश्चित ही नाच उठेगा। आहार्य वस्तु-वक्रता : आहार्य का अर्थ है - शिक्षा एवं अभ्यास के द्वारा अर्जित काव्य कौशल। आहार्य कवि के काव्य कौशल से उत्पन्न वस्तु-वक्रता होती है। मम्मट भी लोक, शास्त्र काव्य आदि के पर्यालोचन से उत्पन्न निपुणता तथा काव्यज्ञ गुरु की शिक्षा के अनुसार अभ्यास को कवि के लिए अत्यावश्यक मानते हैं। कुन्तक के अनुसार - "कविजन जिन पदार्थो के स्वरूप का वर्णन प्रस्तुत करते हैं वे उनके द्वारा अविद्यमान रहते हुए उत्पन्न नहीं किये जाते, अपितु केवल सत्तामात्र से परिस्फुरण करने वाले इन पदार्थों में वे उस प्रकार के किसी अपूर्व उत्कर्ष की सृष्टि करते हैं, जिससे कि पदार्थ सहृदयों के हृदय को आकर्षित करने वाली, किसी रमणीयता से युक्त हो जाते हैं।'' तात्पर्य यह है कि जब कवि आकर्षण रहित अथवा किसी सामान्य पदार्थ को अपने काव्य कौशल से उस 78. 79. शक्तिनिपुणता लोकशास्त्रकाव्याद्यवेक्षणात्। काव्यज्ञशिक्षयाभ्यास इति हेतुस्तदुद्भवे।। का. प्र., 1/3 वर्ण्यमानस्वरूपा: पदार्थाः कविभिरभूताः सन्तः क्रियन्ते, केवलं सत्तामात्रेणपरिस्फुरतां चैषा तथा विधः कोऽप्यतिशयः पुनराधीयते, येन कामपि सहृदयहृदयहारिणी रमणीयतामधिरोप्यते। व.जी., 3/2 की वृत्ति।
SR No.022664
Book TitleTilakmanjari Me Kavya Saundarya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Garg
PublisherBharatiya Vidya Prakashan2017
Publication Year2004
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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