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________________ 178 तिलकमञ्जरी में वक्रोक्ति __ रुद्रट ने भी वक्रोक्ति को अलङ्कार विशेष के रूप में ही स्वीकार किया है। इन्होंने वक्रोक्ति की अर्थालङ्कार की पदवी को छीनकर इसे शब्दालङ्कार माना है। डॉ. नगेन्द्र का कथन है कि रुद्रट ने वक्रोक्ति का अर्थ 'वक्रीकृता उक्ति' करते हुए उसे वाक्छल पर आधारित शब्दालङ्कार मात्र माना है। रुद्रट ने वक्रोक्ति के दो भेद किये है- काकु वक्रोक्ति और श्लेष वक्रोक्ति । काकु वक्रोक्ति में उच्चारण और स्वर के उतार चढ़ाव के द्वारा अन्य अर्थ की प्रतीति होती है तथा श्लेष वक्रोक्ति में श्लेष के द्वारा । रुद्रट के इस वक्रोक्ति विवेचन का परवर्ती आचार्यों पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा। रत्नाकर नामक कवि ने सभङ्ग श्लेष के चमत्कार का प्रदर्शन करते हुए ‘वक्रोक्ति पंचाशिका' की रचना की। आनन्दवर्धन ने प्रसंगवश ही वक्रोक्ति का वर्णन किया है। ध्वन्यालोक के द्वितीय उद्योत की इक्कीसवीं कारिका की वृत्ति में वक्रोक्ति का उल्लेख मिलता है- “तत्र वक्रोक्त्यादिवाच्यालङ्कारव्यवहार एव।" आनन्दवर्धन ने वक्रोक्ति को अर्थालङ्कार माना है। ये वक्रोक्ति और अतिश्योक्ति को पर्यायवाची मानते है। इनका मत है कि सभी अलङ्कार अतिश्योक्तिगर्भ हो सकते है। महाकवियों द्वारा विरचित यह अतिश्योक्ति काव्य को अनिवर्चनीय शोभा प्रदान करती है। औचित्यपूर्ण अतिशयोक्ति का निबन्धन निश्चय ही काव्य को उत्कर्ष प्रदान करता है।" इस प्रकार कुन्तक के पूर्ववर्ती आचार्यों ने कुन्तक को अपने वक्रोक्ति सिद्धान्त रूपी भवन के लिए वह आधार भूमि प्रदान की जिस पर कुन्तक ने वक्रोक्ति रूपी भव्य प्रासाद को आकार प्रदान किया। कुन्तक के परवर्ती आचार्यों ने भी वक्रोक्ति की भिन्न रूपों में विवेचना की है। इनका संक्षिप्त वर्णन प्रस्तुत है परवर्ती आचार्यों का वक्रोक्ति चिन्तन कुन्तक के पश्चात् भोजराज ने वक्रोक्ति की विस्तृत विवेचना की है। इन्होंने वाङ्मय को तीन भागों में विभक्त किया है -"वक्रोक्ति, रसोक्ति और 8. भारतीय काव्यशास्त्र की भूमिका, पृ. 144 9. ध्वन्या., 2/21 की वृत्ति 10. अतिश्योक्तिगर्भता सर्वालङ्कारेषु शक्यक्रिया । कृतैव च सा महाकविभिः कामदि काव्यच्छविं पुष्यति। ध्वन्या., पृ. 498
SR No.022664
Book TitleTilakmanjari Me Kavya Saundarya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Garg
PublisherBharatiya Vidya Prakashan2017
Publication Year2004
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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