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तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य महाकवि धनपाल की तिलकमञ्जरी में पदौचित्य पदे-पदे परिलक्षित होता है। धनपाल ने मेघवाहन की महारानी मदिरावती के लिए 'द्वितीया पद का प्रयोग किया है। 'द्वितीया कथ्यते जाया'। मदिरावती के लिए प्रयुक्त यह पद औचित्य युक्त है क्योंकि इस पद से यह प्रकाशित हो रहा है कि मेघवाहन और मदिरावती दो पृथक् शरीरधारी है परन्तु दोनों में एक ही प्राण संचारित हो रहा है। इस पद में इन दोनों के अत्यधिक प्रेम तथा प्राणान्त तक अभिन्नता का भाव अभिव्यञ्जित हो रहा है। अतएव यहाँ पदौचित्य है। उत्तररामचरित में भी प्राप्त होता है - 'त्वमसि मे हृदयं द्वितीयम्' अर्थात् 'त्वं मम अपरं हृदयमसि एकमेव आवयोः हृदयं द्विधा स्थितम् ।
ब्राह्मणों की प्रकृष्ट पवित्रता को दिखाने के लिए 'द्विज पद का प्रयोग किया गया है। कहा गया है - जन्मना जायते शूद्रः संस्कारैर्द्विज उच्यते । अर्थात् जन्म से सभी शूद्र होते है, संस्कारों से उनका दूसरा जन्म होता हैं। ब्राह्मणे के संदर्भ में इसका अर्थ है, जिसका पवित्रता रूप संस्कार किया जा चुका हो। 'द्विज' पद से ब्राह्मणों की प्रकृष्ट पवित्रता अभिव्यक्त होती है, अतएव यहाँ पदौचित्य है।
धनपाल ने पृथ्वी की कठोरता अभिव्यक्त करने के लिए 'वसुन्धरा पद का प्रयोग किया है। वसुन्धरा अर्थात् वसुनि कनरजतादिनी धनानि धारयतीति वसुन्धरा। जो अनेक प्रकार के वस्तुओं (रत्नादि) को धारण करती है, वह वसुन्धरा है। रत्न स्वभाव से ही कठोर होते है। जो इन रत्नों को धारण करती है, वह निश्चय ही अधिक कठोर होगी। सम्राट् मेघवाहन के कन्धे ऐसी वसुन्धरा का भार वहन करने में सक्षम है जिसके भार से वराहावतार का मुख वक्रित हो गया था तथा शेषनाग की फन रूप भित्तियाँ सहस्र प्रकार से विदीर्ण हो गई थी। इस प्रकार 'वसुन्धरा' पद से पृथ्वी की अत्यधिक कठोरता का भाव नितरां द्योतित हो रहा है, अत: यहाँ पदौचित्य है।
63. तस्य च राज्ञः सकलभुवनाभिनन्दितोदया द्वितीयाशशिकलेव द्वितीया । ति. म., पृ. 21
उ. रा. च.,3/26 65. ति. म., पृ. 15 66. वसुन्धरा भारवहनक्षमस्कन्धस्य, वही, पृ. 16 67. यस्य धारणे आदिवराहेणापि वक्रीतं मुखमुरगराजस्यापि सहस्रधा भिन्नाः फणा एव
भित्तयः। वही, पृ. 15