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तिलकमञ्जरी में औचित्य
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यहाँ पर संसार का अनित्यता रूप तत्त्व का उद्भावन किया गया है। जो प्राणी इस तत्त्व को जान लेता है, वह मुक्त हो जाता है।
मेघवाहन के धनादि स्वीकार करने के आग्रह को अस्वीकार करते हुए विद्याधर मुनि कहते हैं कि कामिनी-काञ्चनादि विषयों के उपभोगार्थ ही लोभीजन धन ग्रहण करते हैं। मुनिजन सांसारिक विषयों से दूर रहते हैं क्योंकि विषयासक्ति सभी प्रकार के दोषों की जड़ है। वे शरीर की रक्षा भी इसलिए करते है क्योंकि शरीर ही धर्म का सर्वप्रथम साधन है। धर्मोपदेश के द्वारा ही परकीय प्रयोजन की सिद्धि भी हो जाती हैं। अतः मुनियों को धन से क्या प्रयोजन। मुनियों की वाणी ही सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाली होती है। जो मनुष्य विषयों में आसक्ति छोड़ मुनि उपदेश को सुनकर सदाचरण करता है वह धन के बिना भी सुख प्राप्त करता है। यह सर्वानुभूत सत्य है कि धन अपने साथ अनेक दोषों को लाता है। अतः मुनि का यह कथन तत्त्वौचित्योपेत है। नामौचित्य
नामौचित्य का अर्थ है पात्र के कर्म के अनुरूप नाम का प्रयोग। जिस प्रकार मनुष्य के कर्म के अनुसार उसके गुण दोषों का ज्ञान हो जाता है उसी प्रकार काव्य के प्रतिपाद्य विषय के अनुसार उसके गुण दोषों का ज्ञान हो जाता है।” नामौचित्य के उदाहरण के रूप में क्षेमेन्द्र ने कालिदास का प्रकृत पद्य दिया है। इसमें उन्होंने मन को छिन्न भिन्न करने वाले कामदेव के 'पञ्चबाण' नाम को नामौचित्य का उत्तम उदाहरण माना है क्योंकि एक हिंसक के लिए बाणादि सम्पन्नता आवश्यक है।
महाकवि धनपाल ने इस गद्य कथा के नायक का नाम 'हरिवाहन' रखा है। हरिवाहन का अर्थ है हरि अर्थात् इन्द्र का वाहन - हरेर्वाहनः, हरिं वाहयति, स्थानान्तरं नयति ।” मेघवाहन हरिवाहन को पुत्र रूप में प्राप्त करने से पहले स्वप्न
56. विषयोभोगगृध्नवो हि धनान्युपाददते । ति.म., पृ. 26 57. नाम्ना कर्मानुरूपेण ज्ञायते गुणदोषयोः ।
काव्यस्य पुरुषस्येव व्यक्ति : संवादपातिनि ।। औ. वि. च., का 38 58. इदमसुलभवस्तुप्रार्थनादुर्निवारः प्रथममपि मनो मे पञ्चबाणः क्षिणोति।
किमुत मलयवातान्दोलितापाण्डुपत्रैरुपवनसहकारैर्दर्शितेष्ट्करेषु ।। वही, पृ. 162-63 59. वाचस्पत्यम्, पृ. 5420