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________________ 136 तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य औचित्य उचित के भाव को औचित्य कहते हैं - उचितस्य भावः औचित्यम् अर्थात जो जिसके अनुरूप होता है, उसका उसी के साथ सम्बन्ध होता है। औचित्य शब्द 'उचित' शब्द से 'ष्यञ्' प्रत्यय लगाकर निष्पन्न होता है।' 'उचित' पद में दिवादिगण की समवायार्थक 'उच्' धातु हैं, इससे 'क्त' प्रत्यय करने पर 'उचित' शब्द बनता है। उचित शब्द का अर्थ है - योग्य, उपर्युक्त, ठीक, प्रचलित, अभ्यस्त। वाचस्पत्यम् में इसका अर्थ शास्त्र, परिचित व युक्त दिया है।' इस प्रकार औचित्य का अर्थ हुआ-अनुकूलता, अनुरूपता, उपयुक्तता, योग्यता तथा युक्तता। इस दृश्यमान जगत् में सभी कुछ उपयुक्त और औचित्य से पूर्ण है। ब्रह्मा ने केवल मानव की रचना की। मानव ने अपने आस-पास के परिवेश को देखकर वस्तुओं को जानकर व उनकी उपयुक्तता को समझकर अपने सुख साधनों का विकास कर लिया। तात्पर्य यह है कि इस सम्पूर्ण जगत् प्रपञ्च में औचित्य को दिखाया जा सकता है। औचित्य का क्रमिक विकास औचित्य सिद्धांत को प्रतिष्ठित करने का श्रेय आचार्य क्षेमेन्द्र को जाता है। औचित्य का विकास मानव सभ्यता के विकास से जुड़ा हुआ है। जब से मानव में बुद्धि का विकास हुआ है तथा वह अपने परिवेश को समझने लगा, तभी से उसमें औचित्य का समावेश हो गया। औचित्य के अभाव में मनुष्य मनुष्य नहीं होता। मन, वचन और कार्यों में औचित्य का निर्वहण मनुष्य को मनुष्यत्व से उठाकर देवत्व की पदवी पर बिठा देता है। मनुष्य अपने औचित्यपूर्ण व्यवहार से मित्र को शुत्र व शत्रु को मित्र बना सकता है, इतिहास इसका साक्षी है। __ वेद भारतीय संस्कृति के आधार पर स्तम्भ हैं। इसी कारण विचारक प्रत्येक चिन्तनीय बिन्दु पर विचार करते हुए वेदों को आधार अवश्य बनाते हैं। औचित्य 1. 2. 3. 4. उचितस्य भावः ष्यञ् - वाचस्पत्यम्, सप्तमखण्ड, पृ. 1556 उच् समवाये-मिश्रणे इति कविकलपद्रुमः । शब्दकल्पद्रम, चौखम्बा संस्करण, पृ. 20 संस्कृत हिंदी कोश -आप्टे, पृ. 181 शस्ते। परिचिते । युक्ते-वाचस्पत्यम्, पृ. 1058
SR No.022664
Book TitleTilakmanjari Me Kavya Saundarya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Garg
PublisherBharatiya Vidya Prakashan2017
Publication Year2004
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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