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पञ्चम अध्याय में तिलकमञ्जरी में रसाभिव्यक्ति की विवेचना की गई है। भोजराज के जिन कथाओं में उत्सुक्ता उत्पन्न होने पर धनपाल ने अद्भुत रस युक्त इस कथा की रचना की थी। तिलकमञ्जरी का अङ्गी रस शृङ्गार होने पर भी इस कथा में आश्चर्यजनक घटनाओं की प्रचुरता होने के कारण सत्य ही यह कथा अद्भुत रस स्फुटा है। इस अध्याय में तिलकमञ्जरीगत शृङ्गार, अद्भुत करुण, वीर, रौद्र, भयानक व शान्त रसों की विवेचना की गई
है।
__षष्ठ अध्याय के अन्तर्गत तिलकमञ्जरी में औचित्य का परिशीलन किया गया है। इसमें आचार्य क्षेमेन्द्रोक्त अभिप्राय, अलङ्कार, कुल, तत्त्व, नाम, पद, रस, वाक्य सत्त्व सारसङ्ग्रह, स्वभाव तथा व्रत के औचित्य की समीक्षा प्रस्तुत की गई है।
सप्तम अध्याय में तिलकमञ्जरी में वक्रोक्ति के वैचित्र्य को प्रकाशित किया गया है। इसके अन्तर्गत आचार्य कुन्तक सम्मत वक्रोक्ति के भेदों-वर्णविन्यासवक्रता, पदपूर्वार्धवक्रता, पदपरार्धवक्रता, वस्तुवक्रता, प्रकरणवक्रता तथा प्रबन्धवक्रता के अनुसार तिलकमञ्जरी में उत्पन्न वैचित्र्य व रमणीयता को प्रकट किया गया है।
अष्टम अध्याय में तिलकमञ्जरी की भाषा शैली की दृष्टि से समीक्षा की गई है। वर्ण्य विषय के अनुरूप भाषा कविगत भावों को सहृदय तक तथावत् सम्प्रेषित करती है। धनपाल की विषयानुकूल भाषा सहृदय को आनन्द प्रदान कर उसके मन का रंजन करती है। इस अध्याय में गद्य शैली के लिए स्वीकृत धनपाल के आदर्शों का वर्णन किया गया है।
उपसंहार में इन अध्यायों में विवेचित विषय-वस्तु का क्रम से निष्कर्ष प्रस्तुत किया गया है।
मेरे शोध-कार्य में जिन विद्वानों, गुरुजनों, मित्रों व अग्रजों ने सहयोग किया है। उनका आभार प्रकट करना मेरा पुनीत कर्त्तव्य है।
संस्कृत की नाना विधाओं के अप्रतिम विद्वान् व संस्कृत विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय के अध्यक्ष प्रो. देवेन्द्र मिश्र जी के पितृतुल्य वात्सल्य