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________________ तिलकमञ्जरी में रस 125 न चिन्तयस्यात्मानम्। अनया विना विधुरेषु कुण्ठितशरस्य कस्ते शरणम्। दुरात्मान्, आत्मनैव निष्पादितां विपदमीदृशीमस्याः पश्यतो मनागपि न ते विच्छायता संजाता। अशोक, सत्यमिवशोकस्त्वम' इत्याद्यनेकप्रकारं संबद्धमसंबद्धं च विलपन्तीं बलवता शोकवेगेन विधुरीकृतां बन्धुसुन्दरीमपश्यम्। पृ. 307-308 समरकेतु हरिवाहन का सहोदर भाई के समान मित्र है। हरिवाहन को जब यह पता चलता है कि समरकेतु उसे खोजने के लिए लौहित्य नदी के तटवर्ती पर्वत के वन में गया हुआ है तो वह भी समरकेतु को खोजने के लिए उसी वन में चला जाता है। इस समाचार को प्राप्त कर मलयसुन्दरी दु:खी हो जाती है कि अब हरिवाहन को भी वन वास के कष्टों को सहना पड़ेगा - तस्मिन्नतर्कितोदीर्णदुर्वारशोका ‘हा समस्तलोकलोचनसससुभग, हा निरन्तरोपभोलालित, हा विहितपरमोपकार, कुमार हरिवाहन, तवाप्ययं सुकृतकर्मादुरात्मान दैवेन विषमवनवासदुःखप्राप्तिहेतुर्विहितः' इति वदन्त्येव निश्चलनिमीलितेक्षणा मलयसुन्दरी मोहमगमत्। पृ. 392 इस प्रकार तिलकमञ्जरी में यत्र तत्र करुण रसधारा प्रवाहित होती रहती है। वीर रस वीर रस मनुष्य में उत्साह व साहस का सञ्चार करता है। वीर रस का स्थायी भाव उत्साह है। शत्रु आदि 'आलम्बन' तथा उनकी चेष्टाएँ 'उद्दीपन' विभाव होते है। धनुष, सेना आदि युद्ध के सहायकों का अन्वेषण अनुभाव कहलाता है। धैर्य, मति, गर्व, रोमाञ्च आदि इसके व्याभिचारी भाव होते है। धनपाल ने तिलकमञ्जरी के अनेक स्थलों पर वीर रस की सफल अभिव्यञ्जना की है। धनपाल ने वज्रायुध और समरकेतु के निशायुद्ध का ऐसा सजीव चित्रण किया है कि शरीर में उत्साह की लहर दौड़ पड़ती है। परस्परवधनिबद्धकक्षयोश्च तयोस्तत्क्षणमाकलितसकलजीवलोको युगपदेकीभूतोदारवारिराशिरस्रजलविसरवर्षिघनपदातिघोरे मुदितयोगिनीमृग्यमाणलो कपालक पाल चषक: प्रचलितरसाकु भा , च्चक्रवाल कृततु मल: प्रसृतरभसोत्तालगजदानवारिरात त्रिदशदारिकान्विष्यमाणरमणसार्थों निपीतनरवशाविस्वरविसारिशिवाफेत्कारडामरः। ...अजायत महाप्रलयसंनिभः समरसंघट्ट ः।पृ.87
SR No.022664
Book TitleTilakmanjari Me Kavya Saundarya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Garg
PublisherBharatiya Vidya Prakashan2017
Publication Year2004
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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