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________________ तिलकमञ्जरी में रस 119 भवदुत्सृष्टदीर्घनि:श्वासनिश्चलनयनयुगलो विगलिता श्रुशीकरक्लिन्न पक्ष्माकराङ्गष्ठनखलेखया भूतलमलिखत्। पृ. 110-111 उधर मलयसुन्दरी के दु:खों का कहीं भी अंत नहीं था। एक तो वह समरकेतु के विरह से पीड़ित थी दूसरी ओर उसके माता-पिता उसका विवाह वज्रायुध से तय कर देते हैं। इससे दु:खी होकर वह आत्महत्या करने का प्रयास करती है तभी समरकेतु आकर उसे बचा लेता है। उसे देखकर मलयसुन्दरी सुख-सागर में गोते लगाने लगती है। यह खुशी भी अधिक समय तक नहीं रहती। समरकेतु अपने कर्तव्य पालन के लिए उसे छोड़कर चला जाता है और विरह-वेदना पुनः मलय सुन्दरी के सिर पर आ पड़ती है। ऐसा प्रतीत होता है कि धनपाल ने अपनी कथा में इन दोनों पात्रों को विरह की आग में जलाने के लिए ही इनका चित्रण किया है। समरकेतु और मलयसुन्दरी ने सम्पूर्ण कथा में केवल विरह-वेदना को ही सहा है। कथा के अन्त में ही इन दोनों का संगम होता है और वे दोनों विवाह-सूत्र में बंधकर सदा के लिए एक हो जाते हैं। अद्भुत रस दिव्य या अलौकिक वस्तु दर्शन तथा विस्मयजनक पदार्थों को देखने से आश्चर्य रूप स्थायी भाव परिपुष्ट होकर अद्भुत रस के रूप में परिणत होता है। अलौकिक वस्तु इसका आलम्बन व उसके गुणों का वर्णन 'उद्दीपन' विभाव होता हैं। स्तम्भ, स्वेद, रोमाञ्च, गद्गद स्वर और नेत्र विकास आदि अनुभाव होते हैं तथा आवेग भ्रान्ति, हर्ष आदि व्याभिचारी भाव होते हैं।" अद्भुत रस कवि की कल्पना की उड़ान को व्यक्त करता है। कवि अपनी प्रतिभा के बल पर ऐसे-ऐसे विस्मयजनक पदार्थों का वर्णन करता है कि सहृदय आश्चर्यचकित होकर अद्भुत रस सागर में गोते खाने लगता है। धनपाल ने तिलकमञ्जरी में अनेक स्थलों पर आश्चर्यजनक अलौकिक पदार्थों का वर्णन कर अद्भुत रस की व्यञ्जना की है। धनपाल ने तो स्वयं ही तिलकमञ्जरी को 'स्फुटाद्भुतरसा' कथा कहा है। अद्भुत रस का सर्वप्रथम 20. ति. म., पृ. 306-312 21. गुणानां तस्य महिमा भवेदुद्दीपनं पुनः । स्तम्भ: स्वेदोऽथ रोमाञ्चगद्गदस्वरसंभ्रमाः । तथा नेत्र विकासाद्या अनुभावाः प्रकीर्तिताः ।। सा. द., 3/243, 244 22. तस्यावदातचरितस्य विनोदहेतो राज्ञः स्फुटाद्भुतरसा रचिता कथेयम् । ति. म., भूमिका, पद्य-50
SR No.022664
Book TitleTilakmanjari Me Kavya Saundarya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Garg
PublisherBharatiya Vidya Prakashan2017
Publication Year2004
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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