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________________ तिलकमञ्जरी में रस 117 भी चाहते हैं। उनकी यह संगमाभिलाषा मलयसुन्दरी के आश्रम में पूरी हो जाती है। परन्तु यह समागम लाभ अधिक समय तक नहीं मिलता। हरिवाहन को जब यह ज्ञात होता है कि समरकेतु उसके वियोग से पीड़ित होकर उसे खोजने के लिए कहीं चला गया है तो हरिवाहन समरकेतु को खोजने निकल पड़ता है। यहाँ से विप्रलम्भ शृङ्गार की रस धारा पुनः प्रवाहित होने लगती है। हरिवाहन के विरह में तिलकमञ्जरी के दिन अत्यधिक कठिनता से बीतते है। वह प्रतिदिन गन्धर्वक से हरिवाहन के विषय में पूछती रहती है कि तुम्हारी हरिवाहन से किस प्रकार भेंट हुई और तुमने कैसे हरिवाहन को मेरा चित्र दिखाया ?इसी प्रकार वह जैसे-तैसे हरिवाहन के लौटने की प्रतीक्षा में दिन बिता रही है। यह प्रवास विप्रलम्भ शृङ्गार का उदाहरण है। एक ओर अन्य स्थल पर विप्रलम्भ शृङ्गार की सुन्दर अभिव्यञ्जना हुई है। हरिवाहन तिलकमञ्जरी के पास चन्द्रातप नामक हार भेजता है उस दिव्य हार को देखकर तिलकमञ्जरी को अपने पूर्व जन्म की याद आ जाती है और वह हरिवाहन से विमुख हो जाती है।” तिलकमञ्जरी की विमुखता को हरिवाहन सहन नहीं कर पाता और आत्मघात करने के लिए विजयार्ध पर्वत के शिखर पर चढ़ जाता है - पठितमात्र एव सहसोत्थितप्रबलसर्वाङ्गकम्पस्य प्रणुन्न इव पृथुनाश्वासपवनेन गुरुकृत इव गरीयसा वाष्पपूरेणावलम्बित इव निरालम्बेन पतता हृदयेन विगलितप्रयत्नाङ्कलीपरिगृहीतः पपात करतलादलक्षितो मे लेखः। ततः कोऽहम्, क्वायात्:, किमर्थमायातः, कि मया प्रस्तुतम्, किमेतद्दिनम्, किं निशा कोऽयं कालः, किमेतानि दुःखानि, कि सुखानि, किं जीवितमिदम्, किं मरणम्, किमेष मोहः, किं चेतना, किं सत्यमेतदाहोस्विदिन्द्रजालम्, कि स्वदेशोऽयमुत विदेशः, इत्याद्यविद्वान् बलवता समास्कन्दितो मनोदुखेन कथमपि विसर्म्य चतुरिकां सौधशिखरादवातरम्। अभिलषितभूधरभृगुप्रपातश्च मुक्त्वा ज्वलन्तमिव तं प्रदेश शिबिरमावासं परिजनं च केनाप्यनुपलक्षितः प्लक्षपिचुमन्दतिन्दुकोदुम्बरबहुलेन गत्वा दुर्गनवमार्गेण दूरमुत्सङ्गिताकाशमाशामुखव्यापिना शिखाग्रेण विजयार्धगिरिशिखरमध्यारोहम्। पृ. 397 16. ति. म., पृ. 391 17. आश्लिष्य कण्ठममुना मुक्ताहारेण हृदि निविष्टेन । सरुषेव वारितो मे त्वदुर:परिरम्भणारम्भ : ।। वही, पृ. 396
SR No.022664
Book TitleTilakmanjari Me Kavya Saundarya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Garg
PublisherBharatiya Vidya Prakashan2017
Publication Year2004
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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