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पुरोवाक्
काव्य शब्द से तात्पर्य कवि के कर्म अथवा कृति से है। काव्य रसमय, भावमय और आनन्दमय होता है। कवि अपनी कल्पना से जिस सृष्टि की रचना करता है, उसके समक्ष ब्रह्मा की सृष्टि भी तुच्छ प्रतीत होती है। कहा भी गया है
अपारे काव्य संसारे कविरेकः प्रजापतिः।
यथास्मै रोचते विश्वं तथेदं परिवर्तते।। ब्रह्मा की सृष्टि नियति के नियमों में आबद्ध, सुखदुःखात्मक तथा मधुरकषायादि षड्रसान्विता है, परन्तु कवि का काव्य जगत् नियति के नियमों से मुक्त, केवल आनन्ददायक तथा शृङ्गारादि नौ रसों से युक्त है
नियतिकृतनियमरहिता लादैकमयीमनन्यपरतन्त्राम्।
नवरसरुचिरां निर्मितिमादधती भारती कवेर्जयति।। काव्याचार्यों ने काव्य को दृश्य तथा श्रव्य दो वर्गों में विभाजित किया है। दृश्य काव्य अभिनयात्मक होता है। इसमें नटादि में रामादि के स्वरूप का आरोप किया जाता है, अतः इसे रूपक भी कहते हैं। दृश्य काव्य में संस्कृत वाड्.मय में उपलब्ध रूपक तथा इसके भेद व प्रभेद आते हैं। श्रव्य काव्य के तीन भेद हैं- गद्य, पद्य और चम्पू। छन्दयुक्त गेयात्मक रचना को पद्य तथा छन्दमुक्त पदरचना को गद्य कहते हैं। गद्य तथा पद्य युक्त मिश्र रचना चम्पू कहलाती है।
संस्कृत वाड्.मय में पद्य, गद्य की अपेक्षा प्रचुर मात्रा में प्राप्त होता है। इसका कारण स्पष्ट है कि पद्य काव्य में कवि छन्दादि नियमों से आबद्ध होता है। काव्य में किसी भी प्रकार की त्रुटि दृष्टिगोचर होने पर, अपने दोष को पद्यबन्ध के नियमों पर आरोपित कर स्वयं को दोषमुक्त सिद्ध कर देता है, परन्तु गद्य रचना में नियमों का बन्धन न होने के कारण अपने दोष को
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