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तिलकमञ्जरी के पात्रों का चारित्रिक सौन्दर्य
जैसा स्थिर चित्तवाला राजकुमार अपने हृदय पर नियन्त्रण खो बैठता है, वह स्वयं कितनी रूपवती होगी। इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। हरिवाहन उसका चित्र देखकर उसमें खो जाता है। कभी उसके केश विन्यास को देखता है। कभी चंद्रमा के समान सुन्दर मुख को, कभी कोमल अधरों को, कभी कटिप्रदेश को, कभी नाभि के मण्डल विस्तार को, कभी उरुभाग को कभी कमल के समान चरणों को देखता है। बार-बार देखने पर भी उसके नेत्र तृप्त नहीं होते । ” गन्धर्वक के जाने के पश्चात् भी वह तिलकमञ्जरी के चित्रस्थ सौन्दर्य को ही निहारता रहता है। रात्रि में भी उसी का चिन्तन करता है । यह इतनी सुन्दर है कि हरिवाहन स्वयं को भी इसके उपयुक्त नहीं समझता।"
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हरिवाहन जब प्रथम बार तिलकमञ्जरी के साक्षात् देखता है, तो अनायास ही इसके मनोहारी सौन्दर्य के विषय में दो पद्य कह उठता
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पुरुष विद्वेषिणी : यह स्वभाव से पुरुष विद्वेषिणी है । यौवनवस्था में पदार्पण करने पर भी कभी किसी पुरुष सम्पर्क की इच्छा नहीं की । तिलकमञ्जरी के इसी स्वभाव को प्रकट करने के लिए गन्धर्वक ने इसका चित्र भी पुरुषरहित बनाया था। इसे विवाह से भी अरुचि है । गुरुजनों के बहुत समझाने पर भी यह विवाह की स्वीकृति नहीं देती।”
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त्रयोचित गुणों से युक्त : विनम्रता, सदाचार, लज्जा और सुकुमारता स्त्रियों के स्वाभाविक गुण है। तिलकमञ्जरी सभी स्त्र्योचित गुणों से युक्त है। जब हरिवाहन विममर्शचादृष्टपूर्वाकृतिविशेषदर्शनदूरविकसत्तारया दृशा त्रिभुवनातिशायिनीमस्याः शरीरवयवसमुदायचारुता - मतिचिरम् । अनुपरतकौतुकश्च मुहुः कण्ठकन्दले, मुहुः स्तनमण्डले, मुहुर्मध्यभागे, मुहुः नाभिचक्राभोगे, मुहुर्जधनभारे, मुहुरूरुस्तम्भयो:, मुहुश्चरणवारिरुहयो:, कृतारोहावरोहया दृष्ट्या तां व्यभावयत् । ति.म., पृ. 162 अहो में मूढ़ता यछसावायतेक्षणा भूमिगोचरनृपाधिपात्मजप्रणयिनी भविष्यतीति वार्तयापि श्रुतया हर्षमुदद्वहामि । क्वाहम्, क्व सा, क्व भूमिगोचरस्यनिकेतनं साकेतनगरम्, क्वदिव्यसङ्गसमुचिताचल- प्रस्थसंस्थं रथनुपुरचक्रवालम् । अपि च विवेकिना विचारणीयं वस्तुतत्त्वम् । वही, पृ. 175-76 ग्रहकवलनाद्भष्टा लक्ष्मीः किमृक्षपतेरियं मथनचकितापक्रान्ताब्धे रुतामृतदेवता । गिरिशनयनोदर्चिर्दग्धान्मनोभवपादपाद्विदितमथवा जाता सुभ्रूरियं नवकन्दली ।। जानीथ श्रुतशलिनौ खलु युवामावां प्रकृत्यर्जुनी त्रैलोक्ये वपुरीद्गन्ययुवतेः संभाव्यते किं क्वचित्। एतत्प्रष्टुमपास्तनीलनलिनश्रेणीविकाशश्रिणी शङ्खेऽस्याः समुपागते मृगदृशः कर्णान्तिकं लोचने। । वही, पृ. 248 वही, पृ. 169
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