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पृथक् भी इसकी सत्ता होती है। वस्तु के किसी विशेष अंग या रंग में सौन्दर्य को परिसीमित नहीं किया जा सकता। प्रायः लोक में देखा गया है कि अलग-अलग रमणीयता के आधायक तत्त्वों का परिगणन करने के बाद भी जब संतोष नहीं होता हे तो बरबस मुँह से निकल जाता है। “बस इतना समझ लो वह बहुत सुन्दर है।" कालिदास की शकुन्तला सभी युगों एवं सभी कालों के साथ सभी स्थानों में सर्वाधिक सौन्दर्य का प्रतिमा रही है। लेकिन पूरे शाकुन्तल में कहीं भी उसका नख-शिख वर्णन नहीं किया गया है। मेघदूत में यक्षिणी का सर्वांग वर्णन करने के बाद भी कवि ऐसा रूप खड़ा नहीं कर पाये, जो सबको संसार की सर्वाधिक सुन्दरी प्रतीत हो सके। शकुन्तला बिना नख-शिख वर्णन के ही प्रत्येक देश और काल में भावक के चित्त की सर्वाधिक सुन्दरी स्त्री बन गई। स्पष्ट है कि सौन्दर्य भौतिक वस्तुओं से व्यतिरिक्त ऐसा तत्त्व है जो अनुभूति का आधार तो बनता है लेकिन जिसकी व्याख्या 'इदमित्थम्' शब्दशः नहीं की जा सकती।
भारतीय काव्यशास्त्रीय परम्परा में सौन्दर्य की यह धारणा अन्तः स्रोतस्विनी के समान प्रत्येक अवधारणा एवं सिद्धान्त में विद्यमान रही है। सौन्दर्य शब्द का प्रयोग समालोचना एवं कला के सन्दर्भ में आधुनिक पाश्चात्य चिन्तन की देन है। क्रोचे ने 'ईस्थेटिक्स' नामक ग्रन्थ की रचना के द्वारा सौन्दर्य को साहित्य के साथ अनिवार्य रूप से जोड़ दिया। आधुनिक भारतीय समालोचना अन्य अनेक शास्त्रों की तरह पाश्चात्य चिन्तन से प्रभावित हुई है और इसी कारण सौन्दर्य शास्त्र और सौन्दर्य विचार का आविर्भाव समालोचना के क्षेत्र में हुआ है। इस बात का संकेत पहले ही दिया जा चुका है कि काव्य का समुचित मूल्यांकन कवि, काव्य एवं भावक तीनों स्तरों पर किया जाना अपेक्षित है। इस दृष्टि से मम्मट का मंगलाचरण भारतीय काव्यशास्त्रीय परम्परा में अकेला निदर्शन है। इसमें न केवल वस्तुपरक अपितु कवि सापेक्ष और सहृदय सापेक्ष सौन्दर्य सिद्धान्त को अत्यधिक सूक्ष्मता से प्रस्तुत करने का यत्न किया गया है
'नियतिकृतनियमरहिता लादैकमयीमनन्यपरतन्त्राम्।
नवरसरुचिरां निर्मितिमादधती भारती कवेर्जयति॥ कवि की वाणी अर्थात् काव्य किस प्रकार का हो? कवि सृष्टि के नियमों से ऊपर उठकर जो सृष्टि करता है, वह सहृदय को किस प्रकार आह्लादित करती है? ये सारी बातें मम्मट ने इस एक कारिका में सूत्र रूप में पिरो दी हैं।
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