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________________ छव्वीसवाँ परिच्छेद पूर्वजन्म चार विशाल राज्य और चार महारानियों का स्वामी उत्तमकुमार एक दिन प्रातःकाल नित्य के आवश्यक कार्यों से निपट कर आनन्द पूर्वक बैठा हुआ था । उसी समय बागवान ने आकर निवेदन किया- “सरकार ! अपने बाग में कोई केवली भगवान् आकर ठहरे हैं ।" अमृत के समान यह वचन श्रवण कर महाराजा ने उसे इस ' वधाई' के लिए खूब इनाम दिया । और स्वयं राज परिवार सहित उन महानुभाव की वंदना के लिए तैयार हुआ । बड़े आनन्द के साथ महाराजा उत्तमकुमार बगीचे में आया और उसने पंच अभिगम की रक्षा करते हुए केवली के निकट जा, वंदना की और यथा स्थान पर बैठ गया। सभी श्रोताओं के सामने महोपकारी केवली भगवान् इस प्रकार उपदेश देने लगे । "हे भव्य जीवो ! आप लोगों ने जो जैनधर्म प्राप्त किया है, उससे आपका जन्म सफल हुआ है । संसार सागर में गोते खाते हुए प्राणियों को बचाने के लिए यह धर्म उत्तम है । इस संसार में भ्रमण करते हुए प्राणियों को यह मनुष्य जन्म अत्यन्त दुर्लभ है । इसीलिए इसे चिन्तामणि के समान कहा गया है । इसमें भी श्रुत-शास्त्र का श्रवण बहुत ही दुर्लभ है । इसके श्रवण करने से मन के पाप नष्ट हो जाते हैं, और हृदय का आज्ञान दूर होने से, उसका अंतर्द्वार खुल जाता है । किसी समय शास्त्र श्रवण का सुयोग तो मिल जाता है परन्तु उसमें श्रद्धा उत्पन्न होना अत्यन्त कठिन है । बिना श्रद्धा उत्पन्न हुए कच्ची मिट्टी के घड़े के पानी की तरह प्रभु का उपदेश हृदय में नहीं रह सकता । यदि सत्कर्मों के योग से जिनवाणी पर श्रद्धा हो जाती है तो उसमें संयम रखने के लिए ब्रह्मचर्य व्रत पालन करना कठिन हो जाता है । इसलिए प्रत्येक प्राणी को मनुष्य शरीर, श्रुत श्रवण, श्रद्धा और वीर्य स्फुरण इन चार पदार्थों को सरल रीति से प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करना चाहिए । हे भव्य जनो ! आप लोगों को निरन्तर स्मरण रखना चाहिए कि धर्म 102
SR No.022663
Book TitleUttamkumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Jain, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages116
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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