SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विजयी नर तो हो सके, नृप यों करत विचार ॥ इस काव्य को सुनकर उस वीर पुरुष ने अपने मन में सोचा कि, इसे | सच्चा-वैराग्य हुआ है । इसलिए अब इसे विशेष आग्रह करके संसार के गड्ढे में | डालना ठीक नहीं है । यह सोचकर दूरदर्शी वीर पुरुष ने विशेष आग्रह नहीं किया। उस विरक्त पुरुष ने अपनी सम्पत्ति इस वीर के हाथ सौंप दी और वह इस संसार | रूपी महासागर से पार होने के लिए नौका के समान दीक्षा लेकर कहीं चला गया। पाठक ! इस अद्भुत घटना को जानने के लिए आप उत्सुक हो गये| होंगे । सुनिए, वाराणसी पति राजा मकरध्वज को अपने पुत्र का स्मरण हो आया था, इसलिए उसने एक वेगवान नामक दूत उत्तमकुमार की खोज में भेजा था। वह दूत सारे भरतक्षेत्र में घूमता हुआ मोटपल्ली नगर में पहुँचा । वहाँ वह उत्तमकुमार की खबर सुनकर बहुत ही खुश हुआ । उसने उत्तमकुमार से मिलकर उसके पिता राजा मकरध्वज का पत्र उसके हाथ में दिया। इस पत्र में, पिता ने पुत्र के प्रति बहुत प्रेम प्रदर्शित किया था । उसमें एक स्नेह-सूचक कविता भी लिखी हुई थी । क्रोध न मैंने था किया, कुवचन कहा न कोय । बिना कहे तूं चल दिया, यह पछतावा होय ॥ राज नीति ज्ञाता कुंवर, तुझ पर था सब खेल । निराधार तज चल दिया, हमको दुख में ठेल ॥ इस पत्र को पढ़ते ही उत्तमकुमार के मन पर गहरा प्रभाव पड़ा । उसके कोमल हृदयपर पितृ भक्ति की भावना प्रकट हो गयी । आगे पत्र पढ़ा तो उसमें यहकविता और लिखी थी। कुँवर ! बाँचकर पत्र यह, ढील न करना भूल ॥ ___ पानी पीना मत वहाँ, यही बात है मूल ॥ तुज बिन सूना देश यह, तुझ बिन सूना राज। तुझ बिन सूनी दृष्टि है, आकर रख तूं लाज ॥ राज कार्य में तूं निपुण, तुज बिन कैसा राज ? 97
SR No.022663
Book TitleUttamkumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Jain, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages116
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy