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________________ ऐसे चले तहँ बान, दिखते नहीं हैं भानु । हटते नहीं है शूर, सब प्राण-प्रण के शूर ॥ बाजे बजत जुझाउ, क्षत्री अड़े तेहि ठाँउ। बन गये रण-मतवाल, हैं काल के भी काल ॥ सब धर्म अपना मान, रख क्षत्रियों की आन । जूझे समर में आय, अरि शीश पर मँडराय ॥ यह वीररस पूर्ण काव्य सुनकर शूरवीरों की छातियाँ फूल उठीं । इसी समय एक पराक्रमी वीर ने आगे बढ़कर अपने शत्रु को पकड़ लिया । अपने मालिक को शत्रु के पंजे में फँसा देखकर सैनिक अपने प्राण लेकर भागने लगे। सारी सेना में हाहाकार मच गया। उस वीर द्वारा पकड़ा हुआ वह शत्रु बड़ा ही लज्जित हुआ । वह उस वीर | के चरणों में गिर पड़ा । दयालु हृदय वीर ने अपने शत्रु को झुका देखकर उसे छोड़ दिया और अभयदान दिया । इसी समय उस पराजित पुरुष के हृदय में वैराग्यभावना प्रकट हो आयी और उसने उसी समय अपना गोपाचल का राज्य उस विजेता को देकर आर्हत दीक्षा लेने की तैयारी की । उस वीर पुरुष ने उसे गोपाचल पर राज्य करने का बहुत ही आग्रह किया, परन्तु वह विरक्त पुरुष अपने विचार से विचलित नहीं हुआ । जब उस वीर ने उसे राज्य करने के लिए बहुत ही आग्रह किया तब उसने कहा मान मलिन मेरा हुआ, रहिके राज मझार । माना सुखदाता जिसे, वह सब दुःख दातार ॥ सम्पति में आपद् बसे, सुख में दुःख का वास । रोग भोग में बसत है, देह मरण आवास ॥ इस सांसारिक जीव को, बन्धन है धन दार । मूर्ख सुख माने इसे , मधु लिपटी तलवार ॥ मान किसी का ना रहा, इस संसार मझार । 96
SR No.022663
Book TitleUttamkumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Jain, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages116
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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