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________________ १६६ श्रीमद्वाग्भटविरचितं नेमिनिर्वाणम् : एक अध्ययन गुण : काव्य के अन्य तत्त्वों की भाँति ही काव्य में भावों की मधुरता बनाने के लिये मधुर भाषा की आवश्यकता होती है । मधुर भाषा को बनाने के लिए गुण-निरूपण आवश्यक है। आचार्य भरत ने गुण को दोषों का विपर्यय कहा है । भरत के अनुसार दोष शोभा के विघातक हैं और गुण काव्य शोभा के विधायक । किन्तु भारतीय काव्य शास्त्र में गुण की स्पष्ट एवं वैज्ञानिक परिभाषा सर्वप्रथम आचार्य वामन ने प्रस्तुत की । इनके अनुसार काव्य के शोभा-कारक धर्मको गुण कहा जाता है । गुण नित्य है जिनके अभाव में सौन्दर्य विधान नहीं हो सकता । उनके अनुसार गुण शब्द और अर्थ के धर्म हैं, ये काव्य के शोभावर्द्धक उपादान हैं । 1 भामह तथा दण्डी ने गुण विभाग का तो विवेचन किया है, किन्तु गुण की स्पष्ट परिभाषा नही दे सके । ध्वनिवादी आचार्य गुण को रस का धर्म या काव्य के प्रधानभूत तत्त्व रस के आश्रित कहते हैं । ये शरीरभूत शब्दार्थ के धर्म नहीं अपितु आत्मभूत रस के अंग हैं । आचार्य मम्मट ने गुणों का स्वरूप बताते हुये कहा है कि जिस प्रकार मानव शरीर में सारभूत आत्मा के धर्म, शौर्य, औदार्य आदि हैं उसी प्रकार काव्यशरीर के सारभूत तत्त्व रस के धर्म जो अपरिहार्य और उत्कर्षाधायक हैं वे गुण हैं । अतः काव्य में रस अंगीरूप में रहते हैं तथा गुण उन रसों में नियत रूप से रहते हुये उपकार करते हैं । आचार्य विश्वनाथ ने भी काव्य में गुण के इसी स्वरूप को माना है । अतः यह स्पष्ट होता है कि जिन लक्षणों से काव्य में विशेषता प्रतीत और दूसरों को प्रभावित करे उन्हें गुण कहा जाता है। अतः संक्षेप में कहा जा सकता है कि गुण रस के धर्म हैं । काव्य में इनकी अचल या नित्य स्थिति है । ये रस के उत्कर्षक या काव्य के शोभाधायक तत्त्व हैं। गुण के भेद : 1 भरत ने अपने नाट्यशास्त्र में दश गुणों का कथन किया है उन्होंने माधुर्य और औदार्य गुणों को कहकर ओज के स्वरूप को भी बतलाया है । अन्य गुणों के विषय में उन्होंने नहीं कहा है। भरत के पश्चात् भामह ने कहा है कि काव्य में तीन गुण होते हैं - ओज, प्रसाद और माधुर्य । उन्होंने कहा है कि माधुर्य और प्रसाद में समस्त पदों का प्रयोग अधिक नहीं होना चाहिये । किन्तु ओजगुण की सिद्धि के लिए समास की बहुलता होनी चाहिए ।" दंण्डी ने १. नाट्यशास्त्र, १७ / ९४ २. तमर्थमवलम्बन्तेयेऽग्निं ते गुणाः स्मृता । ध्वन्यालोक, २/६ ३. ये रसस्यांगिनो धर्माः शौर्यादिरिवात्मनः । उत्कर्षहेतवस्ते स्युरचलस्थितयो गुणाः । - काव्यप्रकाश, ८/६६ ४. साहित्यदर्पण, ८/१ ५. श्लेवप्रसाद - समता- समाधिमाधुर्यमोजः पदसौकुमार्यम् । अर्थस्य च व्यक्तिरुदारता च कान्तिश्चकाव्यस्यागुणाः दशैते । । ६. समासवदभिविविधैर्विचित्रैश्च पदैर्युतम् । सा तु स्वरैरुदारैश्च तदोजः परिकीर्त्यते । । - भरतनाट्यशास्त्र, १६ / १९ - भरतनाट्यशास्त्र, १७ / ९६ ७. काव्यालंकार की भूमिका, पृ० ३८
SR No.022661
Book TitleNemi Nirvanam Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAniruddhakumar Sharma
PublisherSanmati Prakashan
Publication Year1998
Total Pages252
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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