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________________ नेमिनिर्वाण का संवेद्य एवं शिल्प : महाकाव्य १३३ गुणों से सम्पन्न देवता अथवा सवंश में उत्पन्न क्षत्रिय नायक होता है । कहीं-कहीं एक ही कुल में उत्पन्न अनेक राजा भी नायक हो सकते हैं । श्रृंगार, वीर अथवा शान्त में से कोई एक रस अंगी (प्रधान) होता है तथा अन्य सभी रस गौणरूप में रहते हैं । इसमें नाटक की पाँचों सन्धियों रहती हैं । इसका कथानक ऐतिहासिक, अथवा सज्जनाश्रित होता है । धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में से कोई एक इनका फल होता है । आरम्भ में नमस्कार, आशीर्वाद अथवा कथावस्तु का निर्देश होता है । कहीं-कहीं दुर्जनों की निन्दा और सज्जनों की प्रशंसा की जाती है । इसमें न तो बहुत ही छोटे और न बहुत ही बड़े कम से कम आठ सर्ग होते हैं । प्रत्येक सर्ग में एक ही छन्द होता है किन्तु सर्गान्त में छन्द का परिवर्तन कर दिया जाता है । किसी सर्ग में अनेक छन्द भी मिलते हैं । सर्ग के अन्त में भावी कथा की सूचना होनी चाहिए । इसमें सन्ध्या, सूर्य, चन्द्रमा, रात्रि, प्रदोष, अन्धकार, दिन, प्रातःकाल, मध्याह्न, मृगया, पर्वत, षड्ऋतु, वन, समुद्र, संयोग, विप्रलम्भ, मुनि, स्वर्ग, नगर, यज्ञ, संग्राम, यात्रा, विवाह, मन्त्र, पुत्र और अभ्युदय आदि का यथासंभव सांगोपांग वर्णन होता है । महाकाव्य का नाम कवि के नाम से. वर्ण्य चरित के नाम से अथवा चरित-नायक के नाम से होना चाहिए। इसके अतिरिक्त अन्य किसी आधार पर भी नाम हो सकता है । वर्णनीय कथानक के अनुसार सर्ग का नाम भी रखा जाता है । उक्त लक्षण में यह बात अवश्य खटकती है कि विश्वनाथ के मतानुसार महाकाव्य का नायक कोई देव या सवंश में उत्पन्न क्षत्रिय होना चाहिये । यदि इस बात को मान लिया जाये तो संस्कृत के शंकरदिग्विजय, दयानन्ददिग्विजय आदि काव्य महाकाव्य की श्रेणी में नहीं आ पायेंगे । आचार्य भामह ने महापुराण के चरित्र को ही महाकाव्य के लिए आवश्यक तत्त्व माना है। अतएव विश्वनाथ के सवंशः क्षत्रियो वापि' को महान् चरित्र का ही उपलक्षण मानना चाहिए। किसी भी महाकाव्य में उपर्युक्त सभी लक्षणों का समावेश अत्यन्त दुर्लभ है, क्योंकि आचार्यों ने तो किसी एक महाकाव्य को अपना आदर्श मानकर लक्षण का निर्माण किया है। सर्गबन्धो महाकाव्यं तौको नायकः सुरः । सद्वंशः क्षत्रियो वापि धीरोदत्तगुणान्वितः ।। एकवंशभवा भूपाः कुलजा बहवोऽपि वा । श्रृंगारवीरशान्तानामेकोंगी रस इष्यते ।। अंगानि सर्वेऽपि रसाः सर्वे पटकसन्धयः । इतिहासोद्भवं वृत्तमन्यद्वा सज्जनाश्रयम् ।। चत्वारस्तस्य वर्गाः स्युस्तेष्वेकं च फलं भवेत् । आदौ नमस्त्रियाशीर्वादवस्तुनिर्देश एव वा ।। क्वचिनिन्दा खलादीनां सतां च गुणकीर्तनम् । एकवृत्तमयैः पद्यैरवसानेन्यवृत्तकैः ।। नातिस्वल्पा नातिदीर्घाः सर्गाष्टाधिका इह । नाना-वृत्तमयः क्वापि सर्गः कश्चन् दृश्यते ।। सर्गान्ते भाविसर्गस्य कथायाः सूचनं भवेत् । संध्यासूर्येन्दुरजनीप्रदोषध्वान्तवासराः ।। प्रातर्मध्याह्नमृगयाशैलतुवनसागराः । संभोगविप्रलम्भौ च मुनिस्वर्गपुराध्वराः ।। रणप्रयाणोपयममन्त्रपुत्राभ्युदादयः । वर्णनीया यथायोगं सांगोपांग अमी इह ।। कवेत्तस्य वा नाम्ना नामकस्येतरस्य वा । ___ - साहित्यदर्पण.६/३१५-३२४
SR No.022661
Book TitleNemi Nirvanam Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAniruddhakumar Sharma
PublisherSanmati Prakashan
Publication Year1998
Total Pages252
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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