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श्रीमद्वाग्भटविरचितं नेमिनिर्वाणम् : एक अध्ययन इस प्रकार यादवों ने अपनी सुन्दरियों के साथ विभिन्न प्रकार से जलक्रीड़ा सम्पन्न की। नवम सर्ग:
नवम सर्ग में सायंकाल चन्द्रोदय का वर्णन है । अस्तानल ने सूर्य को अतिथि समझकर उसका स्वागत किया। निर्मल जल में प्रतिबिम्बित सूर्य का बिम्ब, रत्न धारण किये हुये अर्धपात्र के समान प्रतीत हो रहा था । सायंकाल के समय सूर्य रूपी दीपक के प्रकाश को पवन द्वारा बुझाये जाने पर मनुष्यों के रूप को चुराने वाले अन्धकार रूपी चोर ने संसारमन्दिर में प्रवेश किया । रात्रि के घने अन्धकार को छिन्न करने के लिए औपधिपति चन्द्रमा का उदय हुआ। कैरव ने विकसित हे कमल की शोभा प्राप्त की । चन्द्रोदय के होते ही समुद्र हर्षित होकर उछलने लगा।
अमृतोपम अधर, रम्यशब्द, पेलव शरीर, सुन्दर आकृति, सुगन्धित श्वास एवं लज्जित नेत्र वाली नायिकाएँ, नायकों के लिए इन्द्रियों के तृप्त्यर्थ सुखनिधि थी । इस प्रकार रात्रि के समय में (चन्द्रोदय हो जाने पर) युवक और युवतियाँ नाना प्रकार के संयोग सुखों का अनुभव करने लगे। दशम सर्ग:
___ इसके बाद कामदेव के द्वारा काम से जलते हुए मन वाले नव युवक और नवयुवतियाँ मधुपान में आसक्त हो गये थे । मधु का मादक नशा आनन्द विभोर कर रहा था । मधु पीने से प्रफुल्लित स्त्रियों के मुख, चन्द्र बिम्ब सदृश प्रतीत हो रहे थे । इस प्रकार का यह मधु मृगनयनियों के गान को नष्ट करने वाला था । यादव लोग मधुपान से उन्मत्त हो नाना प्रकार की सुरत क्रीड़ाओं में आसक्त हो गये थे। ___ इस प्रकार वसन्त के समय में प्रेरित वे सब यदुवंशी जल में विभिन्न प्रकार की क्रीड़ाओं से, मधुपान से तथा सुरत क्रीडाओं से संसार के सभी सुखों का सेवन कर रहे थे। एकादश सर्ग:
उग्रसेन महाराज की पुत्री (राजीमती) वसन्त में (चैत्र में) जलक्रीड़ा के लिए अपनी माताओं के साथ आयी और वहाँ उसने नेत्रों को आनन्दित करने वाले नेमिनाथ को (अरिष्टनेमि) को देखा और देखते ही काम बाणों से बिद्ध हो गई । उसके शरीरदाह को शान्त करने के लिए शीतल जल, चन्दनादि पदार्थों का सेवन कराया गया। पर इन पदार्थों से उसका सन्ताप और अधिक बढ़ गया। सखियाँ राजीमती को सब प्रकार से शान्त करने का प्रयास करने लगी, पर नेमि के स्मरण मात्र से उसकी आँखों से अश्रुवर्षा हो रही थी। इधर यादवेश समुद्रविजय ने नेमि के लिए विवाहार्य राजीमती की भावना व्यक्त करने के लिए श्रीकृष्ण को भेज दिया। श्रीकृष्ण की याचना को उग्रसेन ने सहर्ष स्वीकृति प्रदान की और अरिष्टनेमि के विवाह का शुभ मुहूर्त निश्चित किया गया । समुद्रविजय ने अपने पुत्र के अनुरूप वधू को तथा उग्रसेन ने भी पुत्री के अनुरूप नेमि को प्राप्त कर दोनों के विवाहोत्सव की तैयारियाँ प्रारम्भ करा दी।