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________________ ११२ श्रीमद्वाग्भटविरचितं नेमिनिर्वाणम् : एक अध्ययन आयी और इंद्र को सौंप दिया । इन्द्र की लाल हथेली पर काजलवत्, अशोक की लता पर पल्लव की तरह, वह बालक अत्यधिक सुशोभित हुआ । दिन-रात स्तुतियों से युक्त इन्द्र उसे लेकर ऐरावत हाथी पर सवार हो सुमेरु पर्वत की चोटी पर अभिषेक करने के लिये ले गये । तदन्तर इन प्रभु के आगे अप्सरायें नाच उठी तथा इन्द्र के आगे देव दुन्दुभिवाद्य बजा रहे थे । जिससे वह वाद्य-ध्वनि पर्वत से प्रतिध्वनित होने के कारण सुमेरु का अट्टहास प्रतीत हो रही थी। पुष्पराग से पीत हुई नदियाँ दावानल की गर्मी से छिपे हुये स्वर्ग-प्रवाह के समान मालूम पड़ रही थी । आपके जन्म से यह पृथ्वी सनाथ हुई निरन्तर उत्सवों को करती हुई, तुम ही वास्तव में कल्याण की निधि, तुम ही शिव हो, तुम ही लक्ष्मीपति हो, इस प्रकार की स्तुतियों को गाते हुए सभी देवगणों ने अनेक प्रकार से पाण्डुक शिला तल पर भगवान का (जन्म) अभिषेक किया । इन्द्र ने कहा धर्म रथ को धारण कर यह पृथ्वीर को नष्ट करेंगे, अतः " अरिष्टनेमि" यह नाम रखा । देव जन्माभिषेकोत्सव सम्पन्न कर अमरपुरी को चले गये । षष्ठ सर्ग: इसके बाद बालक नेमि नवीन उदित हुये चन्द्रमा के समान प्रतिदिन वृद्धि को प्राप्त होने लगा । महान् ऐश्वर्यशाली उस बालक को पाकर राजा समुद्रविजय अत्यन्त आनन्द को प्राप्त हुए। वह बालक नवीन-नवीन प्राप्त विशिष्ट कान्ति से लोगों के नेत्रों को आनन्दित करने लगा । उसके मुखरूपी चन्द्रमा पर भोलापन, तथा कमल के समान सुन्दर पैरों में लालिमा, वाणी में तोतलापन तथा अधरों पर मुस्कराहट शोभायमान होने लगी । उस बालक का अंग प्रत्यंग अत्यन्त शोभायमान था । कुमार अरिष्टनेमि जन्म से ही मति, श्रुत और अवधि इन तीनों ज्ञान के धारक थे । धीरे-धीरे अरिष्टनेमि ने युवावस्था में प्रवेश किया । उसका शरीर विशेष कान्ति से, वाणी अलंकृतियों से तथा गति मनोहारिता से युक्त हो गई। युवावस्था के आ जाने पर यद्यपि इन्द्रीय विकार का उत्पन्न होना स्वाभाविक है किन्तु वह बालक विषयवासना से होन तथा गंभीरता से युक्त बना रहा । अरिष्टनेमि के सौन्दर्य को देखने के लिये ही मानों बसन्त ऋतु आ गई । मलयाचल की हवाएं पथिकों के मनरूपी कानन के लिये अग्नि के समान काम को उत्पन्न करने लगी । भ्रमर फूलों के रसों का आस्वादन करने के लिए घूमने लगे । तिलकवृक्ष खिले हुये फूलों के बहाने रोमांचित होने लगे । कोयलों की आवाज से अपने प्रियतमों के आगमन की सूचना पाकर रमणियाँ बलि प्रदान करने लगी । इस आनन्दमय समय में सभी बारम्बार झूले की क्रीडा का आनन्द लेने लगी । मधुर ध्वनि वाली कोयलों की आवाज कानों में पड़ने पर ऐसा कोई पथिक नहीं था जिसने कामदेव से प्रेरित होकर अपनी प्रियतमा को याद न किया हो । बसन्त ऋतु के इस सुहावने समय में यदुवंशी लोग रैवतक पर्वत पर
SR No.022661
Book TitleNemi Nirvanam Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAniruddhakumar Sharma
PublisherSanmati Prakashan
Publication Year1998
Total Pages252
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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