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________________ नेमिनिर्वाण की कथावस्तु उत्पन्न हुए थे । उनकी आयु भी उसी अन्तराल में शामिल थी, उनकी आयु एक हजार वर्ष की थी । शरीर दश धनुष ऊँचा था उनके संस्थान और संहनन उत्तम थे। तीनों लोकों के इन्द्र उनकी पूजा करते थे और मोक्ष उनके समीप था । इस प्रकार के दिव्य सुखों का अनुभव करते हुए चिरकाल तक द्वारावती में रहे । इस तरह सुखोपभोग करते हुये उनका बहुत भारी समय एक क्षण के समान बीत गया । किसी एक दिन मगध देश के रहने वाले ऐसे कितने वैश्य पुत्र जो कि जलमार्ग से व्यापार करते थे, पुण्योदय से मार्ग भूलकर द्वारावती नगरी में आ पहुँचे । वहाँ की राजलीला और विभूति देखकर आश्चर्य में पड़ गये। वहाँ जाकर उन्होंने बहुत से श्रेष्ठ रत्न खरीदे । तदनन्तर राजगृह नगर जाकर उन वैश्य पुत्रों ने अपने सेठ को आगे किया और रत्नों की भेंट देकर चक्ररत्न के धारक राजा जरासन्ध के दर्शन किये । राजा जरासन्ध ने उनका सम्मान कर उनसे पूछा कि “अहो वैश्य पुत्रों, आप लोगों ने यह रत्नों का समूह कहाँ से प्राप्त किया है? यह अपनी उठती हुई किरणों से ऐसा जान पड़ता है मानों कौतुकवश इसने नेत्र ही खोल रखे हों।" उत्तर में वैश्य पुत्र कहने लगे कि हे राजन् ! सुनिये हम लोगों ने एक बड़ा आश्चर्य देखा है और ऐसा आश्चर्य जिसे पहले कभी नहीं देखा है। समुद्र के बीच में एक द्वारावती नगरी है । जो ऐसी जान पड़ती है मानो पाताल से ही निकल कर पृथ्वी पर आई हो । वहाँ चूने से पुते हुये बड़े-बड़े भवन सघनता से विद्यमान हैं । जिससे ऐसा जान पड़ता है मानो समुद्र के फेन का समूह ही नगरी के आकार में परिणत हो गया हो । वह शत्रुओं के द्वारा अलंघनीय है । अतः ऐसी जान पड़ती है मानो भरत चक्रवर्ती का दूसरा पुण्य ही हो । भगवान् नेमिनाथ की उत्पत्ति का कारण होने से वह नगरी सब नगरियों से उत्तम है, कोई भी उसका विघात नहीं कर सकता है । वह याचकों से रहित है । यहाँ उसके महलों पर बहुत सी पताकायें फहराती रहती हैं जिससे ऐसा जान पड़ता है कि यह “गौरव रहित शरद ऋतु के बादलों का समूह मेरे ऊपर रहता है" इस ईर्ष्या के कारण मानों वह महलों के अग्रभाग पर फहराती हुई चंचल पताकाओंरूपी बहुत सी भुजाओं से आकाश में ऊँचाई पर स्थित शरद ऋतु के बादलों को वहाँ से हटा रही हो । वह नगरी ठीक समुद्र के जल के समान है क्योंकि जिस प्रकार समुद्र के जल में बहुत से रत्न रहते हैं उसी प्रकार उस नगरी में भी बहुत से रत्ल विद्यमान हैं । जिस प्रकार समुद्र का जल कृष्ण तेज अर्थात् काले वर्ण से सुशोभित रहता है उसी प्रकार वह नगरी भी कृष्ण तेज अर्थात् वसुदेव पुत्र श्रीकृष्ण के प्रताप से सुशोभित है और जिस प्रकार समुद्र के जल में सदा गम्भीर शब्द होता रहता है, उसी प्रकार उस नगरी में भी सदा गम्भीर शब्द होता रहता है, वह नो योजन चौड़ी तथा बारह योजन लम्बी है, समुद्र के बीच में है तथा यादवों की नगरी कहलाती है, "हम लोगों ने ये रत्न वहीं प्राप्त किये हैं-ऐसा वैश्य पुत्रों ने कहा । जब देव से छले गये अहंकारी जरासन्ध ने वैश्य पुत्रों के उक्त वचन सुने तो वह क्रोध से अन्धा हो गया । जिसकी सेना असमय से
SR No.022661
Book TitleNemi Nirvanam Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAniruddhakumar Sharma
PublisherSanmati Prakashan
Publication Year1998
Total Pages252
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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