SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९४ श्रीमद्वाग्भटविरचितं नेमिनिर्वाणम् : एक अध्ययन तीन लोक का स्वामी होने वाला है ऐसा अहमिन्द्र का जीव जब छः माह बाद जयन्त विमान से चलकर पृथ्वी पर आने के लिये उद्यत हुआ तब काश्यप गोत्री हरिवंश के शिखामणि राजा समुद्रविजय की रानी शिवादेवी रत्नों की धारा आदि से पूजित हुई और देवियाँ उनके चरणों की सेवा करने लगीं। छह माह समाप्त होने पर रानी ने कार्तिक शुक्ल षष्ठी के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र में रात्रि के पिछले समय सोलह स्वप्न देखे और उनके बाद ही मुखकमल में प्रवेश करते हुए एक उत्तम हाथी को देखा । 1 तदनन्तर - बन्दीजनों के शब्द और प्रातः काल के समय बजने वाली भेरियों की आवाज सुनकर जागी हुई रानी शिवादेवी ने मंगलमय स्नान किया, पुण्यरूप वस्त्राभरण धारण किये और फिर बडी नम्रता से राजा के पास जाकर वह उनके अर्धासन पर बैठ गई । पश्चात् उसने अपने देखे हुए सोलह स्वप्नों का फल पूछा । सूक्ष्म बुद्धिवाले राजा समुद्रविजय ने भी सुने हुये आगम का विचार कर उन स्वप्नों का फल कहा कि तुम्हारे गर्भ में तीन लोक के स्वामी तीर्थङ्कर अवतीर्ण हुए हैं। उस समय रानी शिवादेवी स्वप्नों का फल सुनकर ऐसी सन्तुष्ट हुई मानों उसने तीर्थङ्कर को ही प्राप्त कर लिया हो। उसी समय इन्द्रों ने भी यह सब अपने-अपने चिह्नों से जान लिया । वे सब हर्ष से मिल कर आये और स्वर्गावतरण कल्याणक (गर्भ कल्याणक) का महोत्सव करने लगे । उत्सव द्वारा पुण्योपार्जन कर वे अपने - अपने स्थान पर चले गये । फिर श्रावणशुक्ला षष्ठी के दिन ब्रह्मयोग के समय चित्रा नक्षत्र में तीन ज्ञान के धारक भगवान का जन्म हुआ। ऐसे सौधर्म आदि इन्द्र हर्षित होकर आये और नगरी को घेरकर खड़े हो गये । तदनन्तर जो नील कमल के समान कान्ति के धारक हैं, ईशानेन्द्र ने जिनपर छत्र लगाया है तथा नमस्कार करते हुए चमर और वैरोचन नाम के इन्द्र जिन पर चमर ढोर रहे हैं, ऐसे जिनेन्द्र बालक को सौधर्मेन्द्र ने बड़ी भक्ति से उठाया और कुबेर निर्मित तीन प्रकार की मणिमय सीढ़ियों के मार्ग से चलकर उन्हें ऐरावत हाथी के स्कन्ध पर विराजमान किया । अब इन्द्र आकाश मार्ग से चलकर सुमेरु पर पहुँचे और वहाँ उसने सुमेरु पर्वत की ईशान दिशा में पाण्डुक शिला के अग्रभाग पर जो अनादिनिधन मणिमय सिंहासन रखा है, उस पर सूर्य से अधिक तेजस्वी जिन-बालक को विराजमान कर दिया। वहीं उसने अनुक्रम से हाथोंहाथ लाकर इन्द्रों के द्वारा सौपे एवं क्षीरसागर के जल से भरे स्वर्णमय एक हजार आठ देदीप्यमान कलशों के द्वारा उनका अभिषेक किया। उन्हें यथायोग्य इच्छानुसार आभूषण पहनाये और ये समीचीन धर्मरूपी चक्र की नेमि हैं - चक्रधारा है, इसलिए उन्हें नेमिनाम से सम्बोधित किया। फिर सौधर्मेन्द्र ने मुकुटबद्ध इन्द्रों के द्वारा माननीय महाऋद्धि के धारक भगवान् को सुमेरु पर्वत पर लाकर माता-पिता को सौंपा। विक्रिया द्वारा अनेक भुजायें बनाकर रस और भाव से भरा हुआ आनन्द नामक नाटक किया और यह सब करने के बाद समस्त देवों के साथ अपने स्थान पर चला गया । भगवान नेमिनाथ की तीर्थ परम्परा के पाँच लाख वर्ष बीत जाने पर नेमि जिनेन्द्र
SR No.022661
Book TitleNemi Nirvanam Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAniruddhakumar Sharma
PublisherSanmati Prakashan
Publication Year1998
Total Pages252
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy