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________________ "नेमिनिर्वाण" का कर्ता श्रिय दिशतु वो देवः श्री नाभेय जिनः सदा । मोक्षमार्ग सदा ब्रूते पदागमपदावली ।।। (अर्थात् वे श्री नाभेय-जिन जिनकी सिद्धान्त परम्परा सत्पुरुषों के लिये मोक्ष मार्ग का निरूपण किया करती है, आप सबको कल्याण लक्ष्मी प्रदान करे ।) ___ "श्री नाभेय जिन" इस पद में श्री स्वनभियों ब्रह्माश्च, नभियो ताभ्यामुपक्षितो जिनः विष्णु श्री नाभेयजिनः अर्थात् लक्ष्मी किंवा ब्रह्मा से पुरस्कृत विष्णु भगवान् आदि अर्थ की गवेषणा जो कि वाग्भटालंकार की एक आध व्याख्या में की गई है, वाग्भट को जैन धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्म का अनुयायी नहीं सिद्ध करती । इस मंगल श्लोक में “अतिशय चतुष्टय” अर्थात् ज्ञानातिशय, पूजातिशय, अपायापगमतातिशय और वचनातिशय का स्पष्ट संकेत है । (क्योंकि जैन साहित्य की परम्परा में “देव” वह है जो केवलज्ञान श्री से देदीप्यमान है। श्री नाभेय जिन वह है जो श्री अथवा अष्ट-महाप्रतिधर्मादि लक्ष्मी से सदा संयुक्त किंवा राग द्वेषादिरिपुचक्र का विजेता है, और मोक्ष मार्ग का प्रदर्शक वह है जो “रत्नत्रय” की आराधना-साधना से सिद्ध है)। वह इसी बात का प्रमाण है कि वाग्भट की आस्था “रत्नत्रय” के प्रति रह चुकी है और वाग्भट की मनस्तुष्टि “जैनागम पदावली" पर केन्द्रित है । वाग्भट ने न तो गुरु आदि का नाम लिखा है और न कोई अन्य ही परिचय दिया है, अपने किसी पूर्ववर्ती कवि आचार्य का भी स्मरण नहीं किया है जिससे इनके विषय में जाना जा सके । ग्रन्थ के अन्तर्वीक्षण मे ज्ञात होता है कि वे वाग्भट निश्चित रूप से दिगम्बर सम्प्रदाय के थे । काव्य के प्रारम्भ में मंगलाचरणों में २४ तीर्थङ्करों का क्रमशः वर्णन किया है जिनमें क्रमशः मल्लिनाथ तीर्थङ्कर को इक्ष्वाकुवंशी राजासुत (श्वेताम्बर के अनुसार सुता नहीं) माना है। तथा मल्लिनाथ को कुमार रूप माना है । तथा दूसरे सर्ग में दिगम्बर मान्य सोलह स्वप्नों का वर्णन है। इससे इनका दिगम्बर सम्प्रदाय का होना सुनिश्चित है.।। वाग्भट प्रथम ने अपने वंश के सम्बन्ध में कुछ थोड़ा सा संकेत किया है : ब्रह्माणुशक्तिसम्पुटमौक्तिकमणेः प्रभासमूह इव । श्री वाग्भट इति तनय आसीत् बुधस्तस्य सोमस्य ।। वाग्भटालंकार के व्याख्याकार श्री सिंहदेव मणि ने इस उदाहरण श्लोक की अवतरणिका के रूप में निर्देश दिया है : “इदानीं ग्रन्थकारः इदमलंकार कर्त्तत्वख्यापनाय वाग्भटाभिधस्य महाकवेर्महामात्यस्यतन्ना १. वाग्भटालंकार श्लोक संख्या -१ (प्रथम परिच्छेद) २. वाग्भटालंकार, भूमिका, पृ०-२ ३. तपः कुठारक्षतकर्मवल्लिमल्लिर्जिनो वः श्रियमातनोतु। कुरोःमतस्यापि न यस्य जातं दुःशासनत्वं भुवनेश्वरस्य।। ___ - नेमिनिर्वाण, १/२९ ४. नेमिनिर्वाण, २/४६ ५. वाग्भटालंकार चतुर्थ परिच्छेद श्लोक सं०१४७
SR No.022661
Book TitleNemi Nirvanam Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAniruddhakumar Sharma
PublisherSanmati Prakashan
Publication Year1998
Total Pages252
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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