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________________ 58 जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण लोकों का शिखर ही जिनका स्थान है। जिन्हें अनन्तसुख का अभ्युदय प्राप्त हुआ है ऐसे सिद्ध परमेष्ठी मुक्तजीव कहलाते हैं।।। समस्त कर्मों के बन्धन से मुक्त होना मोक्ष कहलाता है। मोक्ष अनन्तसुखों वाला है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान सम्यग्चारित्र मोक्ष के साधन कहे गये हैं।।16 कर्म बन्धन टूटने से जिनका आत्मीय स्वरूप प्रकट हो जाता है, वे मुक्त आत्माएँ हैं। ऐसी आत्माओं के शरीर एवं शरीर जन्य क्रियाएँ नहीं होतीं। ये जन्म-मृत्यु आदि के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं इसलिये उन्हें सत्चित्-आनन्द कहा जाता है। मुक्त जीव उपाधि रहित होते हैं। इनके स्थूलसूक्ष्म आदि किसी प्रकार के शरीर नहीं होते।117 जिनके द्रव्य व भाव दोनों कर्म नष्ट हो गये हैं, वे मुक्त हैं।। 18 अथवा शुद्ध चेतनात्मा या केवल ज्ञान अथवा केवलदर्शनोपयोग लक्षण वाला आत्मा मुक्त है।119 जब आत्मा कर्ममल, कलंक और शरीर को अपने से सर्वथा पृथक् कर देता है तब उसके जो अचिन्त्य स्वाभाविक ज्ञानादि गुणरूप और अव्याबाध सुखरूप सर्वथा विलक्षण अवस्था उत्पन्न होती है, उसे मुक्त कहते हैं। चौदह गुणस्थान परिभाषा ग्रन्थकार ने चौदह गुणस्थानों का एक स्थान पर वर्णन न करके भिन्न-2 दार्शनिक स्थलों पर, गुणस्थानों अर्थात् साधक के आन्तरिक परिणामों को उजागर किया है।120 मोह और मन, वचन, काय की प्रवृत्ति के कारण जीव के अन्तरंग परिणामों में प्रतिक्षण होने वाले उतार-चढ़ाव का नाम गुणस्थान है। परिणाम यद्यपि अनन्त है, परन्तु उत्कृष्ट मलिन परिणामों से लेकर उत्कृष्ट विशुद्ध परिणामों तक तथा उससे ऊपर जघन्य वीतराग परिणाम से लेकर उत्कृष्ट वीतराग परिणाम तक की अनन्तों वृद्धियों के क्रम को वक्तव्य बनाने के लिए उनको चौदह श्रेणियों में विभाजित किया गया है। वे 14 गुणस्थान कहलाते हैं। साधक अपने अन्तरंग प्रबल पुरुषार्थ द्वारा अपने परिणामों को निर्मल एवं स्वच्छ बनाता है। जिनके कारण कर्मों व संस्कारों का उपशम, क्षय वा क्षयोपशम होता हुआ अन्त में जाकर सम्पूर्ण कर्मों का क्षय हो जाता है, वही उसकी मोक्ष है। ___दर्शनमोहनीयादि कर्मों की उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि अवस्थाओं से उत्पन्न होने वाले जिन भावों से जीव लक्षित किये जाते हैं, उन्हें सर्वदर्शियों ने "गुणस्थान'' इस संज्ञा से निर्देश किया है।121
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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