________________
आदिपुराण में तत्त्व विमर्श व जीव तत्त्व विषयक विचारधारायें 57
वादि देवसूरि ने संसार आत्मा का जो स्वरूप बताया है उसमें आत्मा का पूर्णरूप आ जाता है वह रूप है-आत्मा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध है। वह
चैतन्यस्वरूप है, परिणामी है, कर्ता है, साक्षात् भोक्ता है. स्वदेह परिमाण है, प्रत्येक शरीर में भिन्न है, पौदगलिक कर्मों से युक्त हैं। 09
संसारी जीव सदेह सोपाधि होते हैं जिसे स्थूल अथवा सूक्ष्म शरीर के द्वारा जाना जाता है। इन्हें सन्देह भी कहते हैं। इन जीवों का ज्ञान एवं दर्शन कर्म पुद्गल से आच्छादित होने के कारण परिमित होता है। 10
जीवत्व भव्यत्व, अभव्यत्व11 से तीन भेद होते हैं। आदिपुराण में जीव के तीन भेद कहे गये हैं
1. भव्य 2. अभव्य 3. मुक्त
1. भव्य
जिसे आगामी काल में सिद्धि प्राप्त हो सके अर्थात् आने वाले समय में संसार-सागर से पार हो जाये उसे भव्य कहते हैं।
भव्यजीव सुवर्ण-पाषाण के समान होता है अर्थात् जिस प्रकार निमित्त मिलने पर सुवर्ण-पाषाण आगे चलकर शुद्ध सुवर्ण रूप हो जाता है, उसी प्रकार भव्य जीव भी निमित्त मिलने पर शुद्ध सिद्ध स्वरूप हो जाता है। 12
भव्य जीव अनादिकाल से शुद्धि अर्थात् सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र के द्वारा प्राप्त होने योग्य निर्मलता की शक्ति को धारण करता है। भव्य जीव अधिकतर दीक्षा धारण करके संयम और तप का आराधन तपस्या करके सिद्ध स्वरूप हो जाता है।।13
2. अभव्य
जो जीव भव्यजीव से विपरीत है अर्थात् जिसे कभी भी सिद्धि की प्राप्ति न हो सके उसे अभव्य जीव कहते हैं। अभव्यजीव अन्धपाषाण के समान होता है अर्थात् जिस प्रकार अन्धपाषाण कभी भी सुवर्णरूप नहीं हो सकता उसी प्रकार अभव्य जीव को कभी भी मोक्ष प्राप्त नहीं होता।। 14
3. मुक्त
जो जीव कर्म बन्धन से छूट चुके हैं, जो कर्म कालिमा से रहित है। तीनों