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________________ 54 जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण की सिद्धि वाक्यों के प्रयोग से ही होती है यदि वाक्यों का प्रयोग न किया जाये तो किसी भी पदार्थ की सिद्धि नहीं होगी और उस अवस्था में संसार का व्यवहार बन्द हो जायेगा। यदि वह वाक्य विज्ञान से भिन्न है तो वाक्यों का प्रयोग रहते हुए विज्ञानाद्वैत सिद्ध नहीं हो सकता। यदि यह कहें कि वे वाक्य भी विज्ञान ही हैं तो इस विज्ञानाद्वैत की सिद्धि किसके द्वारा की है ? इसके अतिरिक्त यह बात विचारणीय है कि जब जीव को निरंश एवं निर्विभाग वाला माना जाय तो ग्राह्य आदि का भेदव्यवहार सिद्ध नहीं हो सकेगा। तात्पर्य यह है कि विज्ञान पदार्थों को जानता है इसलिए ग्राहक कहलाता है और पदार्थ ग्राह्य कहलाते हैं जब ग्राह्य पदार्थों की सत्ता ही स्वीकृत नहीं मानी जायेगी तो ज्ञान- ग्राहक किस प्रकार सिद्ध हो सकेगा। यदि ग्राह्य को स्वीकार करता है तो विज्ञान का अद्वैत नष्ट हो जाता है।" ज्ञान का प्रतिभास घट-घटादि विषयों के आकार से शून्य नहीं होता। अगर एक विज्ञान से दूसरे विज्ञान का ग्रहण होता है तो विज्ञान में निरालम्बनता का अभाव हुआ अर्थात् ग्राहक भाव सिद्ध हो गया जो कि विज्ञानाद्वैत का बाधक है। अगर एक विज्ञान दूसरे विज्ञान को ग्रहण नहीं करता तो फिर उस द्वितीय विज्ञान को जोकि अन्य सन्तान रूप है, सिद्ध करने के लिए क्या हेतु होगा? कदाचित् अनुमान से उसे सिद्ध करोगे तो घट-पट आदि बाह्य पदार्थों की स्थिति भी अवश्य सिद्ध हो जायेगी; क्योंकि जब साध्य-साधन रूप अनुमान लिया जाए तब विज्ञानाद्वैत कहाँ रहा। उसके अभाव में अनुमान के विषयभूत घटपटादि पदार्थ भी अवश्य मानने पड़ेंगे। 2 यदि यह संसार केवल विज्ञानमय ही है तो फिर समस्त वाक्य और ज्ञान मिथ्या हो जायेंगे, क्योंकि जब बाह्य घटपटादि पदार्थ ही नहीं हैं तो ये वाक्य और ज्ञान सत्य है तथा ये असत्य यह सत्यासत्य व्यवस्था कैसे हो सकेगी। जब साधन आदि का प्रयोग करते हैं तब साधन से भिन्न साध्य भी मानना पड़ेगा और वह साध्य घटपटादि बाह्य पदार्थ ही होंगे। इस तरह विज्ञान से अतिरिक्त बाह्य पदार्थों का भी सद्भावसिद्ध हो जाता है।” अतः जीव विज्ञानमय होते हुए भी उसे चैतन्य स्वरूप कहना ठीक है। जीव शून्यात्मक नहीं यदि कहा जाय की यह समस्त संसार शून्यरूप है। इसमें जो नर, पशुपक्षी घट-पट आदि पदार्थ दिखाई देते हैं वह सब मिथ्या है। भ्रान्ति से ही सत्य प्रतिभास होता है जिस प्रकार स्वप्न में हाथी आदि का मिथ्या आभास होता है। 94 इसलिए सारा जगत् मिथ्या है। यदि जगत मिथ्या है तो परलोक भी सिद्ध नहीं हो सकता। क्योंकि यह सब गन्धर्वनगर की तरह असत्स्वरूप है। जो
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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