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आदिपुराण में तत्त्व विमर्श व जीव तत्त्व विषयक विचारधारायें 53 चैतन्यस्वरूप जीव विज्ञानमात्र नहीं
जीव का अभाव सिद्ध करते हुए विज्ञानवादी कहते हैं कि जीव नाम का कोई भी पदार्थ नहीं है, न ही उसकी उपलब्धि होती है, यह समस्त संसार क्षणभंगुर है जो-जो इस लोक में क्षणिक है वे सभी ज्ञान के विकार हैं अगर ज्ञान के विकार नहीं तो नित्य होने चाहिए। इस संसार में कुछ भी नित्य नहीं है। इसलिए सभी ज्ञान के विकार हैं।86 विज्ञान निरंश है अवान्तर भागों से रहित है बिना परम्परा उत्पन्न किये ही उसका नाश हो जाता है और वैद्य-वेदक तथा संवित्ति रूप से भिन्न प्रकाशित होता है अर्थात् वह स्वभावत: न तो किसी अन्य ज्ञान के द्वारा जाना जाता है और न किसी को जानता ही है, एक क्षण रहकर समूह नष्ट हो जाता है। वह ज्ञान नष्ट होने से पहले अपनी सांवृत्तिक सन्तान छोड़ जाता है जिससे पदार्थ का स्मरण होता रहता है। वह सन्तान अपने सन्तानी ज्ञान से भिन्न नहीं है।87
अब प्रश्न उठता है कि विज्ञान की सन्तान प्रतिसन्तान मान लेने से पदार्थ का स्मरण तो सिद्ध हो जायेगा परन्तु प्रत्यभिज्ञान सिद्ध नहीं हो सकेगा। क्योंकि प्रत्यभिज्ञान की सिद्धि के लिए पदार्थ को अनेक क्षणस्थायी मानना पड़ेगा जो बौद्धों को मान्य नहीं। पूर्व क्षण में अनुभूत पदार्थ का द्वितीयादि क्षण में प्रत्यक्ष होने पर जो जड़ रूप ज्ञान होता है उसे प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। क्षणभंगुर पदार्थ में जो प्रत्यभिज्ञान आदि होता है वह वास्तविक नहीं किन्तु भ्रान्त है। जिस प्रकार कटे हुए नाखून और बाल दुबारा बढ़ जाने पर ये वे ही नख केश हैं। इसी प्रकार का प्रत्यभिज्ञान भी भ्रान्त होता है।88
यदि यह कहें कि संसारी स्कन्ध दु:ख कहे जाते हैं। वे स्कन्ध विज्ञान, वेदना, संज्ञा, संस्कार और रूप के भेद से पाँच प्रकार के बताये गये हैं। पाँचों इन्द्रियों के शब्द आदि विषय, मन और धर्मायतन (शरीर) ये बारह आयतन हैं। जिस आत्मा और आत्मीय भाव से संसार में रुलाने वाले रागादि उत्पन्न होते हैं उसे समुदय सत्य कहते हैं। सब पदार्थ क्षणिक हैं। क्षणिक नैरात्म्यवाद भावना मार्ग सत्य है तथा इन स्कन्धों के नाश होने पर निरोध अर्थात् मोक्ष कहते हैं। विज्ञान की सन्तान से अतिरिक्त जीव नाम का कोई पदार्थ नहीं है जो कि परलोक रूप फल को भोगने वाले हैं।89 तो विज्ञानवादियों का उपर्युक्त सिद्धान्त ठीक नहीं कहा जा सकता क्योंकि विज्ञान से ही विज्ञान की सिद्धि नहीं हो सकती। कारण यह है कि साध्य और साधन दोनों एक हो जाते हैंविज्ञान ही साध्य होता है और विज्ञान ही साधन होता है। ऐसी हालत में तत्त्व का निश्चय कैसे हो सकता है एक बात यह है कि संसार में बाह्य पदार्थों