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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
पृथक् ही प्रतिभासित होता है इसलिए जीवद्रव्य को ही चैतन्य का उपादान कारण मानना उचित है वही उसका सजातीय और सलक्षण है।"
गुड़, पुष्प, पानी आदि के संयोग से जो मादक शक्ति उत्पन्न होती है वे जड़ है, मूर्तिक है। तात्पर्य यह है कि प्रकृत में सिद्ध करना चाहते हैं विजातीय द्रव्य से विजातीय की उत्पत्ति और उदाहरण दे रहे हैं सजातीय द्रव्य से सजातीय की उत्पत्ति का। वास्तव में चार्वाक मत भूतपिशाचों से ग्रसित हुआ मालूम होता है। यदि ऐसा नहीं होता तो इस संसार को जीवरहित केवल पृथिवी, जल, तेज, वायु रूप ही कैसे कहता।80 अगर पृथ्वी आदि भूतचतुष्ट्य में चैतन्य शक्ति पहले से ही अव्यक्त रूप से रहती है - यह कहना ठीक नहीं क्योंकि अचेतन पदार्थ में चेतनशक्ति नहीं पायी जाती, यह बात सर्वविदित है।
उपर्युक्त विवरण से यह सिद्ध हुआ है कि जीव कोई भिन्न पदार्थ है, ज्ञान उसका लक्षण है। जिस प्रकार वर्तमान शरीर में जीव का अस्तित्व सिद्ध है उसी प्रकार पिछले और आगे के शरीर में उसका अस्तित्व सिद्ध होता है। जीवों का वर्तमान शरीर पिछले शरीर के बिना नहीं हो सकता। उसका प्रत्यक्ष कारण यह है कि वर्तमान शरीर में स्थित आत्मा में जो दुग्धपानादि क्रियाएँ देखी जाती हैं वे पूर्वभव का संस्कार ही है। यदि वर्तमान शरीर से पहले जीव का कोई शरीर न होता तो जीव में दुग्धपानादि में प्रवृत्ति नहीं हो सकती। इसके बाद भी कोई न कोई शरीर जीव धारण करेगा क्योंकि ऐन्द्रियिक ज्ञान सहित आत्मा बिना शरीर के नहीं रह सकता।82. ___जीव के अगले और पिछले शरीर से युक्त होने पर जीव का परलोक भी सिद्ध होता है। परलोकी आत्मा पुण्य-पाप के फल भी भोगता है। इसके अतिरिक्त जातिस्मरण ज्ञान से जीवन-मरण रूप आवागमन से और आप्तप्रणीत आगम से भी जीव का पृथक् अस्तित्व सिद्ध होता है। 3
जिस प्रकार किसी यन्त्र में जो हलन-चलन होता है वह किसी अन्य चालक की प्रेरणा से होता है इसी प्रकार शरीर में भी तो यातायातरूपी हलन-चलन हो रहा है वह भी किसी चालक की प्रेरणा से ही हो रहा है, वह चालक आत्मा ही है। इसके अतिरिक्त शरीर में जो चेष्टाएँ हित-अहित विचार होते हैं यह जीव का अस्तित्व सिद्ध करते हैं।84
पृथ्वी आदि भूतचतुष्ट्य के संयोग से जीव उत्पन्न होता है तो भोजन पकाने के लिए आग पर रखी हुई बटलोई में भी जीव की उत्पत्ति हो जानी चाहिए क्योंकि वहाँ भी तो अग्नि, पानी, वायु, पृथ्वी रूप भूतचतुष्ट्य का संयोग होता है। इससे सिद्ध होता है कि भूतवादियों के मत में अनेक दोष हैं।