SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 92
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आदिपुराण में तत्त्व विमर्श व जीव तत्त्व विषयक विचारधारायें 5 जब शरीर के किसी एक अंग में कण्टकादि चुभ जाता है तब सारे शरीर में दु:ख का अनुभव होता है। इससे सिद्ध है कि सारे शरीर में एक चैतन्य विद्यमान हैं। यदि सब अंगोपांग में पृथक्-पृथक् चैतन्य होते तो कण्टकादि चुभने से दु:ख की संवेदना सम्पूर्ण शरीर को न होती। परन्तु ऐसा देखा या अनुभव नहीं होता।76 मूर्तिमान शरीर से चैतन्यजीव अमूर्तिमान है यदि यह कहा जाये कि मूर्तिमान शरीर से मूर्तिरहित चैतन्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती क्योंकि मूर्तिमान और अमूर्तिमान पदार्थों में कार्यकारण भाव नहीं होता। मूर्तिमान पदार्थ से भी अमूर्तिमान पदार्थ की उत्पत्ति होती है - जैसे मूर्तिमान इन्द्रियाँ से अमूर्तिमान ज्ञान उत्पन्न होता देखा जाता है यह बात उचित नहीं है क्योंकि इन्द्रियों से उत्पन्न हुए ज्ञान को मूर्तिक ही मानते हैं। उसका कारण यह भी है कि आत्मा मूर्तिक कर्मों के साथ बन्ध को प्राप्त कर एक रूप हो गया है इसलिए कथंचित् मूर्तिक माना जाता है जबकि आत्मा भी कथंचित् मूर्तिक माना गया है तब इन्द्रियों से उत्पन्न हुए ज्ञान को भी मूर्ति मानना उचित है इससे विदित होता है कि मूर्तिक पदार्थों से अमूर्तिक पदार्थों की उत्पत्ति नहीं होती। पृथिवी आदि भूतचतुष्ट्य में जो शरीर के आकार परिणमन हुआ है वह भी किसी अन्य निमित्त से हुआ है यदि उस निमित्त पर विचार किया जाये तो कर्मसहित संसारी आत्मा को छोड़कर दूसरा कोई भी निमित्त नहीं हो सकता। कर्मसहित संसारी आत्मा ही पृथिवी आदि को शरीररूप परिणमन करता है, इससे शरीर और आत्मा की अलग सत्ता सिद्ध होती है। जिस प्रकार पानी का बुलबुला जल में उत्पन्न होकर उसी में नष्ट हो जाता है वैसे ही जीव शरीर के साथ उत्पन्न होकर उसी के साथ नष्ट हो जाता है यह मानना औचित्यपूर्ण नहीं। क्योंकि शरीर और आत्मा दोनों ही विलक्षण-विसदृश पदार्थ हैं। विसदृश पदार्थ से विसदृश पदार्थ की उत्पत्ति कभी भी नहीं हो सकती।78 ___ शरीर से चैतन्य की उत्पत्ति होती है। इस सिद्धान्त को मानने पर प्रश्न उठता है कि शरीर चैतन्य की उत्पत्ति में उपादान कारण है अथवा सहकारी कारण। उपादान कारण तो हो ही नहीं सकता क्योंकि उपादेय-चैतन्य से शरीर विजातीय पदार्थ है। यदि कहें सहकारी कारण है यह इष्ट है। अगर कहें कि सूक्ष्म रूप से परिणत भूतचतुष्ट्य का समुदाय ही उपादान कारण है तो असत् हैं क्योंकि सूक्ष्म भूतचतुष्ट्य के संयोग द्वारा उत्पन्न हुए शरीर से वह चैतन्य
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy