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________________ 48 जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण 5. केवल ज्ञान - ज्ञान आत्मा का स्वभाव है। जो जीव अपनी स्वाभाविक अवस्था में होता है, उसका ज्ञान पूर्ण होता है। यही ज्ञान केवल ज्ञान है। इस ज्ञान में आत्मा को किसी अन्य कारण की आवश्यकता नहीं होती।55 तीन अज्ञान - 1. मति अज्ञान 2. श्रुत अज्ञान 3. विभंग अज्ञान 1. मति अज्ञान - मति विषयक मिथ्याज्ञान मति अज्ञान है। 2. श्रुतअज्ञान - श्रुत विषयक मिथ्याज्ञान का नाम श्रुताज्ञान है। 3. विभंगअज्ञान - अवधिविषयक मिथ्याज्ञान को विभंग अज्ञान कहा गया है।56 2. दर्शनोपयोग - जो अनाकार है, विकल्प रहित ज्ञान है वह दर्शनोपयोग है। इसे निर्विकल्प उपयोग भी कहते हैं। घट-पटादि की व्यवस्था लिये हुए किसी वस्तु के भेद ग्रहण करने को आकार कहते हैं और सामान्य रूप ग्रहण करने को अनाकार कहते हैं।58 दर्शनोपयोग चार प्रकार का होता है - 1. चक्षु दर्शन 2. अचक्षु दर्शन 3. अवधि दर्शन 4. केवल दर्शन 1. चक्ष दर्शन - चक्षुरिन्द्रिय से होने वाला निराकार और निर्विकल्पक दर्शन चक्षु दर्शन हैं।60 2. अचक्षु दर्शन - चक्षुरिन्द्रियातिरिक्त इन्द्रियों तथा मन से होने वाला जो दर्शन है वह अचक्षुदर्शन है। 3. अवधि दर्शन - सीधा आत्मा से होने वाला रूपी पदार्थों का दर्शन अवधिदर्शन है।62 4. केवल दर्शन - स्वभाव दर्शन प्रत्यक्ष और पूर्ण होता है। स्वभावदर्शन आत्मा का स्वाभाविक उपयोग है। यह ज्ञान की तरह स्वाभाविक होता है इसे केवल दर्शन कहते हैं। इसमें आत्मा को किसी कारण की आवश्यकता नहीं होती।63 जिसमें चेतना शक्ति पायी जाती है, वह जीव है। यह जीव अनादिकाल से परिभ्रमण कर रहा है। इसके आरम्भ के विषय में हम कुछ नहीं कह सकते इसलिए इसे अनादिकाल से स्थित माना है।64 इसका आदि और अन्त नहीं। यह ज्ञानोपयोग से सहित होने पर ज्ञाता है, दर्शनोपयोग से युक्त होने से द्रष्टा है,
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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