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आदिपुराण में तत्त्व विमर्श व जीव तत्त्व विषयक विचारधारायें 47 है, वह स्त्री नहीं, वह पुरुष नहीं, नपुंसक नहीं, वह अरूपी सत्ता है। वह बुद्धि से नहीं, अनुभूति से ग्राह्य होता है। तर्कगम्य नहीं, स्वसंवेदनगम्य है। उसका परिपूर्ण स्वरूप प्रकट करने में शब्द असमर्थ है।"
गौतम ज्ञान, दर्शन, चरित्र, तप, वीर्य, सामर्थ्य-उल्लास और उपयोग जीव के लक्षण है।46 तत्त्वार्थ सूत्र में भी उपयोग को जीव का लक्षण माना गया है।47 "उपयुज्यते वस्तु परिच्छेदः प्रति व्यापर्यते जीवोऽनेनेति उपयोगः' अर्थात् जिसके द्वारा जीव वस्तु के परिच्छेद अथवा ज्ञान के लिये व्यापार करता है वह उपयोग है, जिन पदार्थों में यह उपयोग शक्ति है वहाँ जीव व आत्मा विद्यमान है, और जहाँ इस उपयोग गुण का सर्वथा अभाव है, वहाँ जीव का अस्तित्त्व नहीं माना गया। उपयोग के अतिरिक्त उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, सत्त्व, प्रमेयत्वादि अनेक साधारण धर्म भी आत्मा में पाये जाते हैं। आत्मा का विशेष धर्म चेतना ही तत्त्वार्थकार के शब्दों में उपयोग है, अत: वही उसका लक्षण है। लक्षण में उन्हीं गुणों का समावेश होता है जो असाधारण होते हैं।48 उपयोग के भेद
उपयोग दो प्रकार का है - (1) ज्ञानोपयोग, और (2) दर्शनोपयोग।49
1. ज्ञानोपयोग - जो उपयोग साकार है अर्थात् विकल्पसहित पदार्थ को जानता है। वह ज्ञानोपयोग है। ज्ञानोपयोग वस्तु को भेदपूर्वक ग्रहण करता है इसलिए वह साकार सविकल्प उपयोग है। ज्ञानोपयोग के आठ भेद होते हैं
1. मति ज्ञान 2. श्रुत ज्ञान 3. अवधिज्ञान 4. मनः पर्यव ज्ञान 5. केवल ज्ञान 6. मति अज्ञान 7. श्रुत अज्ञान 8. विभंग अज्ञान। 1. मतिज्ञान - इन्द्रिय और मन से पैदा होने वाला जीव और अजीव
विषयक ज्ञान मतिज्ञान है। 2. श्रुतज्ञान - किसी आप्त के वचन सुनने से अथवा आप्तवाक्यों को
पढ़ने से जो ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है।52 3. अवधिज्ञान - रूपी पदार्थों का प्रत्यक्ष ज्ञान अवधिज्ञान है। इस
ज्ञान से रूपी द्रव्य ही जाने जाते हैं, अरूपी द्रव्य नहीं जाने जा
सकते। 4. मनः पर्यवज्ञान - मन की विविध पर्यायों का प्रत्यक्ष ज्ञान मनः
पर्यवज्ञान है।