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यह द्रव्य रूपी और अरूपी है
द्रव्य
रूपी
1. पुद्गल
जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
अरूपी
1. जीव
2. धर्म 3. अधर्म
4. आकाश
5. अद्धासमय
जीव द्रव्य
जैन दर्शन में सर्वप्रथम जीव तत्त्व का निर्देश है। क्योंकि जीव को आधार मानकरे ही अन्य तत्त्वों का माहात्म्य समझ में आ सकता है। अतः जीव तत्त्व का लक्षण और स्वरूप जानना अनिवार्य हो जाता है।
जीव का लक्षण अथवा स्वरूप
जीव का असाधारण गुण, जिसके कारण वह अन्य द्रव्यों से पृथक सिद्ध होता है, चेतना है। 41 चेतनावान् जीव अनन्त है, प्रत्येक शरीर में पृथक्-पृथक् जीव है, जीव का अपना कोई आकार नहीं है। तथापि वह जब जिस शरीर में होता है उसी के आकार का और उसी के बराबर होकर रहता है। 42 एक जीव के असंख्य प्रदेश अविभक्त अंश होते हैं, और वे प्रकाश की तरह संकोच - विस्तार विचारशील हैं। हाथी मरकर चिऊंटी के पदार्थ में जन्म लेता है, तो प्रदेश स्वभावतः सिकुड़कर चिऊँटी के शरीर में समा जाते हैं।
उपयोगमय, प्रभु, कर्त्ता, भोक्ता, बद्ध और मुक्त यह सब ज्ञाता, 43 द्रष्टा, जीव के विशेषण हैं। भगवान महावीर कहते हैं, "हे गौतम । जीव 4 इन्द्रियों के द्वारा नहीं जाना जा सकता, क्योंकि वह अमूर्त है। अमूर्त होने से वह नित्य भी
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" हे गौतम । जीव15 न लम्बा है, न छोटा, न गोल, न तिकोना, न चौकोर, न परिमण्डल, न काला, न पीला, न नीला, न हरा, न रक्त और श्वेत है । सुगन्ध और दुर्गन्ध जीव का स्वरूप नहीं, न खट्टा-मीठा आदि कोई रस है उसमें । कोमल-कठोर आदि सभी स्पर्श उससे दूर हैं। वह उत्पाद और विनाश से परे