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________________ 44 जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण है।32 जैन दर्शन में कहीं सात तो कहीं नौ पदार्थ गिनाने की परम्परा रही है। जो इस प्रकार है 1. जीव, 2. अजीव, 3. पुण्य, 4. पाप, 5. आस्रव, 6. संवर, 7. बन्ध, 8. निर्जरा, 9. मोक्षा तत्त्वार्थ सूत्र में इन्हीं सात तत्त्वों की मान्यता है। वे इस प्रकार हैं1. जीव, 2. अजीव, 3. आस्रव. 4. संवर, 5. निर्जरा, 6. बन्ध, 7. मोक्ष। आदिपुराण में सात पदार्थ भी कहे गये हैं - इस बात का उल्लेख कर ग्रन्थकार तत्त्वार्थ सूत्र को आदर दे रहा है।33 अगर पुण्य और पाप का समावेश आम्रव या बन्ध तत्त्व में कर लिया जाये तो सात तत्त्व ही शेष रह जायेंगे। इस अन्तर्भाव को इस प्रकार समझना चाहिए। पुण्य और पाप दोनों ही आ श्रव हैं। शुभ कर्मों का आत्मा में आना पुण्य आश्रव है और अशुभ कर्मों का आत्मा में आना पाप आश्रव है इसलिए पुण्य और पाप का समावेश आश्रव में हो जाता है।34 पुण्य-पाप दोनों द्रव्यभावरूप से दो-दो प्रकार के हैं। शुभ कर्मपुद्गल द्रव्यपुण्य और अशुभ कर्मपुद्गल द्रव्यपाप है। इसलिए द्रव्यरूप पुण्य तथा पाप बन्धतत्त्व में अन्तर्भूत हैं, क्योंकि आत्मसंबद्ध कर्मपुद्गल या आत्मा और कर्मपुद्गल का सम्बन्ध विशेष ही द्रव्य बन्धतत्त्व कहलाता है। द्रव्य-पुण्य का कारण शुभ अध्यवसाय जो भावपुण्य है और द्रव्यपाप का कारण अशुभ अध्यवसाय जो भावपाप कहलाता है, दोनों भी बन्धतत्त्व में अन्तर्भूत हैं, क्योंकि बन्ध का कारणभूत काषायिक अध्यवसाय-परिणाम ही भाव बन्ध कहलाता है।35 षड् द्रव्य जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल यह छह द्रव्य कहे गये हैं। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश, ये पाँच अस्तिकाय हैं, अर्थात् सत्स्वरूप होकर बहुप्रदेशी हैं। अपनी-अपनी पर्यायों सहित जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, आकाशिस्तकाय, धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय ये पाँच अस्तिकाय के रूप में प्रतिपादित हैं। अस्तिकाय का अर्थ होता है-प्रदेश बहुत्व। “अस्ति" और "काय" इन दो शब्दों के योग से अस्तिकाय बनता है अस्ति का अर्थ विद्यमान होना और काय का अर्थ है अनेक प्रदेशों का समूह। जहाँ अनेक प्रदेशों का समूह होता है वह अस्तिकाय कहा जाता है। अब प्रदेश का अर्थ भी हमें समझना है।
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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