________________
42
जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
जाति की अपेक्षा से ध्रुवता तथा स्वभाव की अपेक्षा से उत्पाद एवं व्यय स्थित रहता है। अतएव सत् के उक्त लक्षण में न तो कोई दोष है न ही कोई विरोध।
"गुणपर्यायवद्र्व्य म्' (त.सू., 5.37) में प्रयुक्त गुण शब्द एवं पर्याय के निगूढार्थ में ही द्रव्य का लक्षण निहित है। अतएव उक्त दोनों शब्दों का स्पष्टीकरण यहाँ आवयश्क प्रतीत होता है। यहाँ गुण वस्तु का वह धर्म है जो उससे कभी पृथक् नहीं होता, साथ ही उसकी ध्रुवता को सुरक्षित रखता है। आलापपद्धति में कहा गया है कि जो द्रव्य को द्रव्यान्तरों से पृथक् करता है, वह गुण है।23 इसके अतिरिक्त जो सम्पूर्ण द्रव्य में व्याप्त रहते हैं तथा निष्क्रिय रहते हैं उन्हें गुण कहते हैं।24 यह गुण एक शक्ति विशेष है इसमें अन्य किसी शक्ति की स्थिति नहीं रहती इसीलिए इसे निष्क्रिय कहा गया है।
वैशेषिक दर्शन में यद्यपि गुण को द्रव्य से सर्वथा पृथक् माना गया है तथापि परिभाषा की दृष्टि से जैन सिद्धान्त के साथ उसका साम्य देखा जा सकता है। प्रशस्तपाद ने गुण के विषय में कहा है कि यह द्रव्य में रहते हैं या स्वयं निर्गुण व निष्क्रिय होते हैं।25 इस प्रकार दोनों के सिद्धान्त में गुण को निष्क्रिय माना गया है।
गुण अन्वयी होते हैं26 इसका तात्पर्य यह है। यह शक्ति के मौलिक स्वभाव का कभी व्यय अथवा नाश नहीं होता। तत्त्वार्थ सूत्र विवेचन में कहा गया है कि द्रव्य में परिणामजननशक्ति उसका गुण है। ये प्रत्येक द्रव्य में अनन्त होते हैं। समानजातीय द्रव्यों में गुण समान होते हैं किन्तु असमानजातीय द्रव्यों में ये समान और भिन्न दोनों होते हैं। यह द्रव्य अनन्तगुणों का अखण्डसमुदाय है।27 दूसरे शब्दों में, द्रव्य की गुणरहित कोई सत्ता नहीं। ये गुण वस्तु, रूप, रस, गन्ध स्पर्शादि है। द्रव्य में सदैव वर्तमान रहने वाला गुण ही पर्याय का जनक भी है।
___ इसके अतिरिक्त पर्याय द्रव्य का एक ऐसा धर्म है जो निरन्तर बदलता रहता है, तथा उस वस्तु के स्वरूप में उसके फलस्वरूप कुछ न कुछ नूतनता
और क्षीणतारूप परिवर्तन होता रहता है। पयार्य द्रव्य का एक अंश है जो द्रव्य के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं नहीं रहता। साथ ही द्रव्य भी कभी पर्यायरहित नहीं होता। पर्याय को प्रायः पर्यय, पर्यव आदि दूसरे अर्थों में भी कहा जाता है।28
तत्त्वार्थसूत्र में प्रस्तुत द्रव्य की दो परिभाषा "उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तम्" तथा "गुणपर्यायवद्र्व्यम्' में पारस्परित साम्य होने पर भी पुनरावृत्ति दोष प्रायः प्रतीत नहीं होता है। क्योंकि गुण एवं पर्याय में उत्पाद. व्यय एवं ध्रौव्य