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आदिपुराण में तत्त्व विमर्श व जीव तत्त्व विषयक विचारधारायें
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तथा अनित्यता का एककालिक सम्बन्ध मानना विरुद्ध नहीं माना जा सकता। इसका उत्तर बड़े सुन्दर ढंग से दिया गया है। बिना किसी प्रकार के परिवर्तन हुए समान भाव से रहने वाली वस्तु को वह नित्य नहीं मानता। अपनी जाति से च्युत न होना ही नित्यत्व का लक्षण है। वस्तु के परिणाम होने पर भी जातिगत एकता विघटित नहीं होती, अत: उसे नित्य मानने में कोई विपत्ति नहीं होनी चाहिए। अनुभव इस परिणामनित्यता के सिद्धान्त की प्रामाणिकता सिद्ध करता है। स्वर्ण में कुण्डलत्व, अङ्गलीयत्व आदि धर्म के उत्पन्न होने पर भी वह सुवर्णत्व जाति से च्युत नहीं होता। “परिणामिनित्यता" के सिद्धान्त में वेदान्तियों के कूटस्थनित्यता तथा सौगतों के "परिणामवाद" का समन्वय है। प्रपंच के नानात्व के भीतर विद्यमान एकत्व को जैन दर्शन अङ्गीकार करता है। वह कहता है जगत का नानात्व भी वास्तविक है, तथा एकत्व भी सत्य है।
सतत् विद्यमान रहने वाले तथा वस्तुसत्ता के लिए नितान्त आवश्यक धर्मों को "गुण" कहते हैं तथा देशकाल जन्य परिणामशाली धर्म को "पर्याय" कहते हैं। गुण तथा पर्याय-विशिष्ट वस्तु को जैन न्याय के अनुसार द्रव्य कहते हैं।20
छान्दोग्योपनिषद् में आरुणि ने आत्मज श्वेतकेतु को ब्रह्मोपदेश देते हुए यह दृष्टान्त दिया था कि मिट्टी के एक पिण्ड को देखकर सभी मिट्टी के कार्यों को हम समझ लेते हैं कि ये मिट्टी के ही विकार हैं। इसके विकार केवल प्रातिभासिक या असत् हैं जबकि उपादान मिट्टी ही उस प्रसंग में एकमात्र सत्य है। इसी के आधार पर शंकर ने कार्य रूप सृष्टि को असत् तथा उपादान ब्रह्म को केवल सत् बताया है।21 जबकि जैन दर्शन कार्य को भी सत् मानता है।
इसके विपरीत बौद्ध ने सारी वस्तुओं को परिवर्तनशील कहा। उनके अनुसार सत् कभी दृष्टिगत नहीं होता। सारे पदार्थ गुणों के समुच्चय हैं। ये गुण भी प्रतिक्षण परिवर्तनशील हैं, जिसका कोई आश्रय नहीं होता। इस प्रकार गणों के आधार पर कहे जाने वाले द्रव्य को बौद्धों ने "असत्' की संज्ञा दी। वाचक उमास्वाति ने सत् अर्थात् नित्यत्व का स्वरूप बतलाने का प्रयास किया है। वह इस प्रकार है कि जो अपने भाव से (अपनी जाति से) च्युत न हो, वही नित्य है।22 कुछ दर्शनों में नित्य की अवधारणा कूटस्थनित्य से है किन्तु जैन दर्शन इन सभी दर्शनों के विपरीत वस्तु को परिणामिनित्य मानता है। परिणामिनित्य से उसका तात्पर्य है कि प्रत्येक काल में पदार्थ अपनी जाति के साथ-साथ परिणमन भी करता है - अर्थात् उत्पाद व्यय भी करता है। इस प्रकार पदार्थ में