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________________ 40 जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण "अभाव" नामक सातवाँ पदार्थ भी जोड़ दिया गया है। इस तरह सात पदार्थ है। न्याय दर्शन ने सोलह पदार्थ माने हैं - प्रमाण, प्रमेय, संशय आदि.....। सांख्य दर्शन ने पच्चीस तत्व स्वीकार किये हैं। वे ये हैं - प्रकृति, महत्, अहंकार, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ ..... आदि। योग दर्शन - योगदर्शन सांख्य सम्मत तत्त्वों के अतिरिक्त ईश्वर समेत छब्बीस तत्त्व स्वीकार करता है। मीमांसादर्शन वेदविहित कर्म को “सत्" तत्त्व मानता है। वेदान्त दर्शन एक मात्र ब्रह्म को सत् या नित्य मानता है, और शेष सभी को असत् या अनित्य मानता है।' बौद्धदर्शन ने चार आर्य सत्य स्वीकार किये हैं - दुःख, दु:ख समुदाय, दुःख निरोध और दुःख निरोध मार्ग ये चार आर्य सत्य अर्थात् तत्त्व हैं।10 जैन दर्शन में तत्त्व की व्यवस्था दो प्रकार से की गई है-षड्द्रव्य रूप में तथा सप्त-तत्त्व या नव पदार्थ के रूप में। द्रव्य, तत्त्व और पदार्थ इन तीनों का एक ही अर्थ है। जैन दर्शन में विभिन्न स्थलों पर और विविध प्रसंगों पर सत्, सत्त्व, तत्त्व, तत्त्वार्थ, अर्थ, पदार्थ और द्रव्य - इन शब्दों का प्रचुर प्रयोग एक ही अर्थ में किया गया है। अतः ये शब्द एक दूसरे के पर्यायवाची रहे हैं।12 आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र में तत्त्वार्थ, सत् और द्रव्य शब्द का प्रयोग तत्त्व अर्थ में किया है।13 अतः जैन दर्शन में जो तत्त्व हैं वह सत् है और जो सत् है वह द्रव्य है। केवल शब्दों में अन्तर है, भावों में कोई अन्तर नहीं है -आचार्य नेमिचन्द्र ने द्रव्य के दो भेदों का समुल्लेख किया हैं - जीव द्रव्य, अजीव द्रव्य। शेष सम्पूर्ण संसार इन दोनों का ही प्रपंच है, विस्तार हैं।4 सत् क्या है। बौद्ध दर्शन कहता है - "यत् क्षणिक तत् सत्" इस विश्व में जो कुछ है वह सब क्षणिक है। बौद्ध दृष्टि से जो क्षणिक है वही सत् है, वही सत्य हैं। इसके विपरीत वेदान्त दर्शन का अभिमत है कि जो अप्रारूप्य, अनुत्पन्न, स्थिर एवं एक रूप है वही सत् है, शेष सभी कुछ मिथ्या है। बौद्धदर्शन इस प्रकार एकान्त क्षणिकवादी है और वेदान्त दर्शन एकान्त नित्यतावादी है। दोनों दो किनारों पर खड़े हैं।।6 जैनदर्शन इन दोनों एकान्तवादों को अस्वीकार करता है। वह परिणामि- नित्यवादी को मानता है। सत् क्या है, उत्पाद-व्यय और ध्रौव्ययुक्त है, वह सत् है, सत्य है, तत्त्व है और द्रव्य है।।7। इसीलिये तत्त्वार्थ सूत्र वस्तु को उत्पाद-व्यय ध्रौव्य युक्त बतलाता है। अर्थात् पदार्थ उत्पन्न होने तथा नाश होने वाला होता है, साथ ही साथ वह स्थिर होने वाला भी होता है - अर्थात् वह नित्यानित्य होता है। जो पदार्थ नित्य है वह उसी क्षण में अनित्य कैसे हो सकता है। क्या एक ही पदार्थ में नित्यता
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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