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________________ द्वितीय अध्याय आदिपुराण में तत्त्व विमर्श व जीव तत्त्व विषयक विचारधारायें भारतीय दर्शन में तत्त्व शब्द एक महत्त्वपूर्ण शब्द है। तत्त्व शब्द तत् शब्द सेव प्रत्यय लगाकर बनता है। इसका प्रयोग सभी दार्शनिक शास्त्रों और ग्रन्थों में हुआ है। क्योंकि प्रत्येक दर्शन के मूल में कोई न कोई तत्त्व माना गया है। अतः इसको सर्वत्र स्वीकार किया गया है। तस्य भावः तत्त्वम्।' तत्त्व विमर्श लौकिक दृष्टि से तत्त्व शब्द के अनेक अर्थ होते हैं - वास्तविक स्थिति, यथार्थता, सारवस्तु, सारांश, किन्तु दार्शनिक चिन्तकों ने तत्त्व के प्रस्तुत अर्थ को स्वीकार करते हुए भी परमार्थ, द्रव्य स्वभाव, पर- अपर, ध्येय, शुद्ध, परम के लिए भी तत्त्व शब्द का प्रयोग किया है। 2 वेदों में परमात्मा तथा ब्रह्म के लिए तत्त्व शब्द का उपयोग किया गया है। सभी दर्शनों ने अपनी-अपनी दृष्टि से तत्त्वों का निरूपण किया है। सभी का यह मन्तव्य है कि जीवन में तत्त्वों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जीवन और तत्त्व ये एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं। तत्त्व से जीवन को अलग नहीं किया जा सकता और तत्त्व के अभाव में जीवन गतिशील नहीं हो सकता। जीवन में से तत्त्व को अलग करने का अर्थ है, आत्मा के अस्तित्त्व से इन्कार करना । समस्त भारतीय दर्शन तत्त्व के आधार पर ही खड़े हुए हैं। आस्तिक दर्शनों में से प्रत्येक दर्शन ने अपनी-अपनी परम्परा और अपनी-अपनी कल्पना के अनुसार तत्त्व - मीमांसा और तत्त्व - विचार स्थिर किया है। भौतिकवादी चार्वाक दर्शन ने भी तत्त्व स्वीकार किये हैं। वह पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि ये चार तत्त्व मानता है। आकाश को नहीं। क्योंकि आकाश का ज्ञान प्रत्यक्ष से न होकर अनुमान से होता है। वैशेषिक दर्शन में मूल छह तत्त्व माने हैंद्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय, कालान्तर में इनके साथ
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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