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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण उनकी सर्वार्थगामिनी प्रज्ञा को देखकर बुद्धिमानों को सर्वज्ञ की सत्ता में कोई शंका नहीं रही थी।।।4 सिद्धान्त समुद्र के जल में धोई हुई अपनी शुद्ध बुद्धि से वे प्रत्येक बुद्धों के साथ स्पर्धा करते थे। 15 गुणभद्र ने उन्हें तमाम वादियों को त्रस्त करने वाला16 और उनके शरीर को ज्ञान और चारित्र की सामग्री से बना हुआ कहा है।।17 जिनसेन (द्वितीय) ने उन्हें कवि चक्रवर्ती कहा है।।18 उनके बनाये हुए तीन ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है। जिनमें से दो उपलब्ध हैंसिद्धभूपद्धति टीका
___ उत्तरपुराण की प्रशस्ति में गुणभद्र स्वामी ने इस टीका का उल्लेख किया है। परन्तु यह टीका तथा मूलग्रन्थ जिसकी यह टीका है दोनों में यह भी कहा है कि सिद्धभूपद्धति ग्रन्थ, पद पद पर विषम या कठिन था।119
ग्रन्थ नाम से अनुमान किया जाता है कि गणित सम्बन्धी ग्रन्थ होगा और वीरसेन स्वामी बड़े भारी गणितज्ञ तो थे ही। जैसा कि उनकी धवला टीका से स्पष्टतः विदित होता है। इसलिए उनके द्वारा ऐसी टीका का लिखा जाना सर्वथा सम्भव है। परन्तु अभी तक यह ग्रन्थ कहीं प्राप्त नहीं हुआ है और न अन्यत्र कहीं इसका उल्लेख ही मिला है।120
धवला टीका
पूर्वो के अन्तर्गत महाकर्म प्रकृत्ति नाम का एक पाहुड़ था। जिसमें कृति, वेदनादि 24 अधिकार थे। पुष्पदन्त और भूतबलि मुनि ने आचार्य धरसेन के निकट इनका अध्ययन करके आदि के छह अधिकारों या खंडों पर सूत्र के रूप में रचना की थी। जिन्हें षट्खण्डागम कहते हैं। उनके नाम हैं - जीवस्थान, क्षुद्रकबन्ध, बन्धस्वामित्व, वेदना, वर्गणा और महाबन्ध। धवला टीका इनमें से आदि के 5 खण्डों की व्याख्या है। छठे महाबन्ध खण्ड के विषय में वीरसेन स्वामी ने लिखा है कि स्वयं भूतबलि ने महाबन्ध को विस्तार के साथ लिखा है। अत एव उसकी पुनरुक्ति करने की जरूरत नहीं मालूम होती और फिर पूर्व के 24 अधिकारों में से शेष के 18 अधिकारों की संक्षिप्त व्याख्या कर दी है। जिन पर भूतबलि के सूत्र नहीं हैं। इस भाग को उन्होंने चूलिका कहा है और इसे ही छठा खण्ड मानकर धवला को भी षड्खण्डागम कहा जाता है। यह पूरा ग्रन्थ 72 हजार श्लोक प्रमाण है इसमें संस्कृत और प्राकृत भाषा मिश्र है।।2।
जयधवला टीका
यह आचार्य गुणचर के कषाय प्राभृत सिद्धान्त की टीका है। इसमें 60