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आदिपुराण में दार्शनिक पृष्ठभूमि गुणभद्राचार्य
गुणभद्राचार्य जिनसेन तथा दशरथ गुरु के शिष्य थे ये भी बहुत बड़े ग्रन्थकर्ता हुए हैं। इन्होंने आदिपुराण के अन्त के 1620 श्लोक रचकर उसे पूरा - किया और फिर उसके बाद उत्तरपुराण की रचना की। जिसका परिमाण आठ हजार श्लोक है। केवल 8 हजार श्लोकों में ही शेष तेईस तीर्थंकरों और अन्य महापुरुषों का चरित लिख कर उन्होंने गुरु के प्रति अपने कर्तव्य का पालन किया।109
उत्तरपुराण यद्यपि संक्षिप्त है, उसमें कथा-भाग की अधिकता है, फिर भी उसमें कवित्व की कमी नहीं है और वह सब तरह से जिनसेन के शिष्य के अनुरूप है। महापुराण को पूरा करने के अतिरिक्त गुणभद्राचार्य ने कुछ स्वतन्त्र कृत्तियों की रचना भी की है।
2. आत्मानुशासन
यह 272 पद्यों का छोटा-सा ग्रन्थ अपने नाम के अनुरूप आत्मा पर अनुशासन प्राप्त करने के लिए बहुत ही उत्तम साधन है। इसकी रचनाशैली भर्तृहरि के वैराग्य शतक के ढंग की ओर बहुत ही प्रभावशालिनी है। इसका प्रचार भी खूब है।
3. जिनदत्तचरित
जिनदत्तचरित्त यह एक हिन्दी अनुवाद है। पं. श्री लाल जी काव्य तीर्थ ने जैन सिद्धराज प्रकाशिनी संस्था द्वारा प्रकाशित किया है। परन्तु न तो उक्त अनुवाद में श्लोकों के नम्बर दिये गये हैं और न कोई प्रशस्ति आदि ही दी है। जिससे मूल ग्रन्थ के सम्बन्ध में कुछ विचार किया जा सके। अनुवाद भी भावार्थ रूप में है। यह नवसर्गात्मक खण्ड काव्य है और सारा का सारा अनुष्टुप् श्लोकों में है। भावार्थ से जहाँ तक अनुमान किया जा सकता है रचना प्रौढ़ और सुन्दर है।। 10
वीरसेन स्वामी
वीरसेन स्वामी जिनसेन के गुरु थे, ये अपने समय के महान् मनीषी आचार्य थे। उन्होंने अपने को सिद्धान्त, छन्दस्, ज्योतिष, व्याकरण और प्रमाण शास्त्रों में निपुण कहा है। 11 जिनसेन ने उन्हें वादिमुख्य, लोकवित, वाग्मी और कवि 12 के अतिरिक्त श्रुतकेवली तुल्य'13 भी बतलाया है और कहा है कि